– डॉ. वेदप्रताप वैदिक
ब्रह्मलीन स्वामी स्वरूपानंद सरस्वती को राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने श्रद्धांजलि अर्पित की है। बावजूद इसके स्वरूपानंद तमाम मौकों पर प्रधानमंत्री मोदी की कड़ी आलोचना करते रहे हैं। यह प्रधानमंत्री की उदारता है। लेकिन स्वरूपानंद सरस्वती के व्यक्तित्व की यह खूबी भी रही है कि वे जिसकी भी आलोचना या सराहना करते थे, उसके पीछे उनका अपना कोई राग-द्वेष नहीं था। उनकी अपनी राष्ट्रवादी दृष्टि थी। उन्हें जो ठीक लगता था, उसे बेधड़क होकर बोल देते थे। मेरा और उनका आत्मीय संपर्क 50 साल से भी ज्यादा पुराना था। उनके गुरु करपात्री महाराज और स्वामी कृष्णबोधाश्रम मेरी पत्नी वेदवती वैदिक का उपनिषद् पर पीएचडी के अनुसंधान में मार्गदर्शन किया करते थे। मेरे ससुर रामेश्वरदास द्वारा निर्मित साउथ एक्सटेंशन के धर्मभवन में मेरी पत्नी और स्वरूपानंदजी साथ-साथ इन महान विद्वानों से शिक्षा ग्रहण किया करते थे। वे वेदवती को अपनी बहन मानते थे।
स्वामी स्वरूपानंद ने अपने अंतिम समय तक मुझसे संबंध बनाए रखा। अभी दो-तीन साल पहले बड़े आग्रहपूर्वक उन्होंने जबलपुर के पास नरसिंहपुर में स्थित अपने आश्रम में मुझे बुलाया था। मेरा करपात्री महाराज और रामराज्य परिषद के नेताओं से बचपन में घनिष्ट संबंध रहा है। स्वरूपानंद भी रामराज्य परिषद में काफी सक्रिय रहे हैं। वे उसके अध्यक्ष भी रहे हैं। रामराज्य परिषद राष्ट्रवाद को मानती थी लेकिन हिंदुत्व को नहीं। वह कहा करते थे अरे, हिंदू तो रावण और कंस भी थे। रामराज्य में तो सब बराबर होते हैं। एराक में जब मस्जिदें गिराई गईं तब रामलीला मैदान में मुसलमानों की सभा में स्वामी स्वरूपानंद पहुंच गए थे। 2002 में गुजरात के दंगों का दो-टूक विरोध किया था। उन्होंने समान आचार संहिता, गोरक्षा अभियान, राम मंदिर आदि कई मामलों में अटलजी का डटकर समर्थन किया था। लेकिन शिरडी के सांई बाबा के विरुद्ध उनका अभियान इतना सफल रहा कि उनके भक्त उनका शताब्दी समारोह नहीं कर सके।
वे कोरे धर्मध्वजी और भगवाधारी संन्यासी भर नहीं थे। उन्होंने 18 साल की आयु में जेल काटी। वे 1942 में स्वाधीनता आंदोलन के तहत सत्याग्रह करते हुए पकड़े गए। 1950 में उन्होंने संन्यास ले लिया और 1981 में वे शंकराचार्य की उपाधि से विभूषित हुए। मध्य प्रदेश के सिवनी जिले में जन्मे इन स्वामीजी का पहला नाम पोथीराम उपाध्याय था। लेकिन उनके पांडित्य और साहस की ध्वजा उनके युवा-काल से ही फहराने लगी थी। लोग उन्हें ‘क्रांतिकारी साधु’ कहा करते थे। वे द्वारका शारदापीठ और बद्रीनाथ ज्योतिष पीठ के भी शंकराचार्य रहे। उन्होंने राजीव-लोंगोवाल समझौता करवाने और सरदार सरोवर विवाद हल करवाने में भी सक्रिय भूमिका अदा की थी। वे अंग्रेजी थोपने के भी कट्टर विरोधी थे। वे भाषाई आंदोलन में हमेशा मेरा साथ देते थे। वे यह भी चाहते थे कि दक्षिण और मध्य एशिया के सभी राष्ट्रों का एक महासंघ बने ताकि प्राचीन आर्यराष्ट्रों के लोग एक बृहद परिवार की तरह रह सकें। उन्हें मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि।
(लेखक, भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष हैं।)