– डा. वेदप्रताप वैदिक
मिखाइल गोर्बाच्येव के निधन पर पश्चिमी दुनिया ने गहन शोक व्यक्त किया है। शोक तो व्लादिमीर पूतिन ने भी प्रकट किया है लेकिन रूस के इतिहास में जैसे व्लादिमीर इलिच लेनिन का नाम अमर है, वैसे ही गोर्बाच्येव का भी रहेगा। रूस के बाहर की दुनिया शायद लेनिन से ज्यादा गोर्बाच्येव को याद करेगी। यह ठीक है कि लेनिन के प्रशंसक और अनुयायी चीन से क्यूबा तक फैले हुए थे और माओ त्से तुंग से लेकर फिदेल कास्त्रो तक लेनिन की विरुदावलियां गाया करते थे लेकिन गोर्बाच्येव ने जो कर दिया, वह एक असंभव लगने वाला कार्य था। उन्होंने सोवियत संघ को कम्युनिस्ट पार्टी के शिकंजे से बाहर निकाल दिया, सारी दुनिया में फैले शीतयुद्ध को विदा कर दिया, सोवियत संघ से 15 देशों को अलग करके आजादी दिलवा दी, दो टुकड़ों में बंटे जर्मनी को एक करवा दिया, वारसा पेक्ट को भंग करवा दिया, परमाणु-शस्त्रों पर नियंत्रण की कोशिश की और रूस के लिए लोकतंत्र के दरवाजे खोलने का भी प्रयत्न किया।
यदि मुझे एक पंक्ति में गोर्बाच्येव के योगदान को वर्णित करना हो तो मैं कहूंगा कि उन्होंने 20 वीं सदी के महानायक होने का गौरव प्राप्त किया है। बीसवीं सदी की अंतरराष्ट्रीय राजनीति, वैश्विक विचारधारा और मानव मुक्ति का जितना असंभव कार्य गोर्बाच्येव ने कर दिखाया, उतना किसी भी नेता ने नहीं किया। लियोनिद ब्रेझनेव के जमाने में मैं सोवियत संघ में पीएच.डी. का अनुसंधान करता था। उस समय के कम्युनिस्ट शासन, बाद में गोर्बाच्येव-काल तथा उसके बाद भी मुझे रूस में रहने के कई मौके मिले हैं। मैंने तीनों तरह के रूसी हालात को नजदीक से देखा है। कार्ल मार्क्स के सपनों के समाजवादी समाज की अंदरूनी हालत देखकर मैं हतप्रभ रह जाता था। मास्को और लेनिनग्राद में मुक्त-यौन संबंध, गुप्तचरों की जबर्दस्त निगरानी, रोजमर्रा की चीजों को खरीदने के लिए लगनेवाली लंबी कतारें और मेरे-जैसा युवा मेहमान शोध-छात्र के लिए सोने के पतरों से जड़ी कारें देखकर मैं सोचने लगता था कि हमारे श्रीपाद अमृत डांग क्या भारत में भी ऐसी ही व्यवस्था कायम करना चाहते हैं?
गोर्बाच्येव ने लेनिन, स्तालिन, ख्रुश्चेव और ब्रेझनेव की बनाई हुई इस कृत्रिम व्यवस्था से रूस को मुक्ति दिला दी। उन्होंने पूर्वी यूरोप के देशों को ही रूसी चंगुल से नहीं छुड़वाया बल्कि अफगानिस्तान को भी रूसी कब्जे से मुक्त करवाया। अपने पांच-छह साल (1985-1991) के नेतृत्व में उन्होंने ‘ग्लासनोस्त’ और ‘पेरिस्त्रोइका’ इन दो रूसी शब्दों को विश्वव्यापी बना दिया। उन्हें शांति का नोबेल पुरस्कार भी मिला लेकिन रूसी राजनीति में पिछले तीन दशक से वे हाशिए में ही चले गए। उनके आखिरी दिनों में उन्हें अफसोस था कि रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध छिड़ा हुआ है। उनकी माता यूक्रेनी थीं और पिता रूसी! यदि गोर्बाच्येव नहीं होते तो आज क्या भारत-अमेरिकी संबंध इतने घनिष्ट होते? रूसी समाजवादी अर्थव्यवस्था की नकल से नरसिंहराव जी ने भारत को जो मुक्त किया, उसके पीछे गोर्बाच्येव की प्रेरणा कम न थी।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और जाने-माने स्तंभकार हैं।)