जन्मः 02 मार्च, 1931, निधनः 30 अगस्त, 2022
– मुकुंद
रशियन टेलीविजन पर 01 दिसंबर, 1991 को शाम के बुलेटिन की शुरुआत नाटकीय घोषणा के साथ हुई थी- ‘गुड इवनिंग। इस वक्त की खबर है- अब सोवियत संघ का अस्तित्व नहीं रहा…।’ दरअसल इससे कुछ दिन पहले ही रूस, बेलारूस और यूक्रेन के नेताओं ने सोवियत संघ से अलग होने को लेकर मुलाकात की थी। इस मुलाकात में स्वतंत्र राज्यों के एक राष्ट्रमंडल के गठन का मुद्दा भी था। इस मुलाकात में आठ अन्य सोवियत राज्यों ने भी इस राष्ट्रमंडल का हिस्सा बनने का फैसला किया था। इन सबने तत्कालीन राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बाचेव को दरकिनार करने का फैसला किया था। और इस घटनाक्रम के बाद 25 दिसंबर, 1991 को गोर्बाचेव ने सोवियत संघ के राष्ट्रपति पद से इस्तीफा की घोषणा की थी। तब क्रेमलिन में सोवियत झंडे को आखिरी बार झुकाया गया। सोवियत साम्राज्य के पतन का श्रेय रोनाल्ड रीगन ने अमेरिका को दिया था।
बड़ी बात यह है कि लाखों रूसियों का मानना था कि मिखाइल गोर्बाचेव के पेरेस्त्रोइका और ग्लासनोस्त (समकालीन सुधारवादी नीति) अंततः सोवियत संघ के विघटन का कारण बने। यह बड़ा तथ्य है कि कई रूसियों की तरह व्लादिमीर पुतिन ने ऐतिहासिक रूस के विघटन पर अपमानित महसूस किया और गोर्बाचेव को कभी माफ नहीं कर पाए। तथ्य यह भी है कि गोर्बाचेव के बिना बर्लिन की दीवार नहीं गिरती और जर्मनी का एकीकरण नहीं होता। शायद इसीलिए जर्मनी में गोर्बाचेव को नायक के रूप में देखा जाता है । शीतयुद्ध के दौर की गवाह इस दीवार को 9 नवंबर 1991 को ढहाया जाना समकालीन इतिहास की बड़ी घटना माना जाता है।
रूस और यूक्रेन के बीच छिड़े युद्ध में गोर्बाचेव के एक संस्मरण का संदर्भ जरूरी है। अपने संस्मरण में गोर्बाचेव ने नाटो के पूर्व की ओर विस्तार नहीं होने के बारे में कुछ आश्वासनों की बात की थी, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से उन्होंने बाद में अपना दावा वापस ले लिया। पुतिन ने दिसंबर 2021 में चुटकी लेने के लिए गोर्बाचेव को उद्धृत करते हुए कहा- ‘आपने 1990 में हमसे वादा किया था कि नाटो पूर्व की ओर एक इंच भी आगे नहीं बढ़ेगा। आपने बेशर्मी से हमें धोखा दिया।’ दरअसल पुतिन यूक्रेन को लेकर विशेष रूप से संवेदनशील रहे हैं। वह मानते रहे हैं कि अगर यूक्रेन नाटो में शामिल होता है, तो यह रूस की सुरक्षा के लिए सीधे खतरा होगा। उन्हें लगा कि रूस के खिलाफ नाटो के हमले के लिए यूक्रेन फौजों का अड्डा बन सकता है। पुतिन की अपने देश के लिए सुरक्षा संबंधी चिंताएं जायज हैं। सोवियत संघ के पतन पर उनके अपमान की भावना और रूस के पुराने वैश्विक प्रभाव को बहाल करने के उनके सपनों को आसानी से समझा जा सकता है। लेकिन यूक्रेन पर क्रूर आक्रमण के उनके फैसले को सही नहीं ठहराया जा सकता।
आज जब गोर्बाचेव हमारे बीच नहीं हैं। दुनिया उन्हें श्रद्धांजलि दे रही है तब वह भारत से दोस्ती के लिए भी याद आ रहे हैं। भारत और रूस की दोस्ती में सोवियत संघ के आखिरी शासक मिखाइल गोर्बाचेव के योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकता। सोवियत नेता मिखाइल गोर्बाचेव और राजीव गांधी ने 27 नवंबर, 1986 को जब दिल्ली घोषणापत्र जारी किया तो अमेरिका और यूरोप सन्न रह गए थे। राजीव का हाथ थामे मिखाइल गोर्बाचेव ने कहा था- अगर भारत की अखंडता और एकता पर कोई भी खतरा पैदा हुआ तो सोवियत संघ चुप नहीं बैठेगा। अगली पंक्ति थीं- हम अपनी विदेश नीति में एक कदम भी ऐसा नहीं बढ़ाएंगे जिससे भारत के वास्तविक हितों पर चोट पहुंचती हो। इससे पहले 1971 में पाकिस्तान के साथ युद्ध से ठीक पहले इंदिरा गांधी और ब्रेझनेव ने फ्रेंडशिप ट्रीटी पर दस्तखत किए थे। अमेरिका इससे बुरी तरह हिल गया था। यह ट्रीटी भारत-रूस के रिश्तों में मील का पत्थर साबित हुई थी। भारत-पाकिस्तान युद्ध में इसका साफ-साफ असर दुनिया देख चुकी है।
आखिर में यह भी, गोर्बाचेव के सोवियत संघ ने भारतीय फिल्मों खासतौर पर राजकपूर के सिनेमा को बेपनाह मोहब्बत दी। जब ‘आवारा’ सोवियत संघ में रिलीज हुई तो वो वहां की एक तरह से राष्ट्रीय फिल्म बन गई। इसका गाना ‘आवारा हूं…’ हर सोवियत नागरिक की ज़ुबान पर रहा। राजकपूर के प्रति पूरे सोवियत संघ में दीवानगी तब और बढ़ गई जब उनकी अगली फिल्म ‘श्री 420’ रिलीज हुई। वर्ष 1954 में भारतीय प्रतिनिधिमंडल सोवियत संघ गया तो हर जगह ‘आवारा हूं..’ गीत गाने की फरमाइश की गई। पंडित जवाहर लाल नेहरू की पहली सोवियत संघ यात्रा पर भी कुछ ऐसा ही नजारा रहा। गोर्बाचेव को रूस के बड़े साहित्यकार दोस्तोव्स्की बहुत पसंद थे। वो जासूसी उपन्यास पढ़ना भी पसंद करते थे। मिखाइल गोर्बाचेव को 1990 में नोबल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
(लेखक, हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)