Friday, November 22"खबर जो असर करे"

शहीद झूरी सिंह ने फूंका था अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल

– प्रभुनाथ शुक्ल

स्वाधीनता आंदोलन का इतिहास रणबांकुरों से भरा पड़ा है। देश को परतंत्रता की बेड़ियों से मुक्त कराने के लिए लाखों लोगों ने प्राणों की आहुति दी है। ऐसे शहीदों की संख्या अनगिनत है। ऐसे में काशी-प्रयाग के मध्य गंगा की माटी में पले-बढ़े शहीद झूरी को याद करना जरूरी है। तत्कालीन जनपद मिर्जापुर के भदोही में शहीद झूरी सिंह के नेतृत्व में अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का बिगुल फूंका गया था। झूरी सिंह का जन्म भदोही जनपद के परऊपुर गांव में 21 अक्टूबर 1816 में हुआ था। उनके पिता का नाम सुदयाल सिंह था।

अंग्रेजों के खिलाफ 28 फरवरी को अभोली में सभासिंह के बाग में मीटिंग आयोजित कि गयी थी जिसका मकसद था, अंग्रेजों को नील की खेती से रोकना। बाद में खुद की सेना को संगठित कर अंग्रेजों के खजाने को लूट कर देश को गुलामी से मुक्त कराना था। अंग्रेजों के खिलाफ इस रणनीति में उदवंत सिंह, रामबक्श सिंह, भोला सिंह, रघुवीर सिंह, दिलीप सिंह, माता भक्त सिंह, सर्वजीत सिंह, राजकरण सिंह, संग्राम सिंह, महेश्वरी प्रसाद, बलभद्र सिंह, शिवदीन, रामटहल हनुमान जैसे युवा शामिल हुए। देश में 1857 की क्रांति भड़कने के बाद अंग्रेजों के खिलाफ गांव-गांव में आक्रोश फैलने लगा था। जनता नील की खेती का विरोध करने लगी थी।

शहीद झूरी सिंह के प्रपौत्र रामेश्वर सिंह ने बताया कि यूरोपीयन इतिहासकार जक्शन ने लिखा है कि 10 जून 1857 को भदोही में क्रांति ने इतना व्यापक रूप ले लिया था कि अंग्रेज सिपाहियों को मिर्जापुर की पहाड़ी पर भागना पड़ा था। भंडा गांव में अंग्रेजों द्वारा नियुक्त सजावल को घायल कर दिया गया और जीटी रोड पर अवरोध उत्पन्न कर मालखाने को लूट लिया गया। इस सफलता के बाद संगठित सेना गठित कर अपने सिपाहियों की नियुक्त कर उदवंत सिंह को राजा घोषित कर दिया गया। उदवंत सिंह की गतिविधियों की खबर जब अंग्रेजों को मिली तो खलबली मच गयी। जिसका नतीजा हुआ कि 16 जून को अंग्रेजों ने अपनी चाल बदलते हुए मिर्जापुर के ज्वाइंट मजिस्ट्रेट बिलियन रिचर्ड म्योर जो बंगाल सिविल सेवा का अधिकारी था, उसकी नियुक्ति भदोही के पाली गोदाम पर कर दी गयी। अंग्रेज यहाँ नील की खेती कराते थे। इसके बाद अंग्रेज अफसर ने एक साजिश रची और क्रांति का नेतृत्व कर रहे उदवंत सिंह को निमंत्रण पत्र भेजकर बुलवाया। फिर उदवंत सिंह के साथ दो और और क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर गोपीगंज के शाही मार्ग पर इमली के पेड़ पर फांसी पर लटका दिया गया।

फांसी की घटना के बाद भदोही की जनता का आक्रोश फूट पड़ा। शहीद उदवंत सिंह की धर्मपत्नी रत्ना सिंह ने तलवार उठाकर मजिस्ट्रेट बिलियन रिचर्ड म्योर का वध करने का प्रण लिया। बाद में इस आंदोलन का नेतृत्व झूरी सिंह ने अपने हाथ में ले लिया। झूरी सिंह मजिस्ट्रेट बिलियन रिचर्ड म्योर को जिंदा नहीं देखना चाहते थे। उन्होंने अपने क्रांतिकारी साथियों को लेकर पाली स्थित नील गोदाम पर आक्रमण कर दिया। हमले में तीन अंग्रेज अधिकारी और कुछ सिपाहियों की हत्या कर दी गयी।

रामेश्वर सिंह के अनुसार क्राउन बनाम झूरी सिंह की गवाही में बताया गया है कि करीब 300 आजादी के दीवानों ने 4 जुलाई शाम 4:00 बजे पाली गोदाम पर आक्रमण किया था।

आंदोलनकारियों के हमले से बचने के लिए पाली गोदाम से रिचर्ड म्योर जान बचा कर भागना चाहा। लेकिन वहां शीतक पाल नामक गडेरिया अपनी भेड़ चरा रहा था। झूरी सिंह ने उसे ललकारा कि अंग्रेज भागने न पाए, उसके पैर में लग्गा फसाओ। शीतल पाल ने वैसा ही किया और अंग्रेज अफसर गिर पड़ा। इसके बाद फौरन झूरी सिंह शेर की माफिक उस पर टूट पड़े और तलवार से उसके सिर को धड़ से अलग कर दिया। बाद में 16 साल का मुसई सिंह रिचर्ड म्योर का सिर हाथ में पकड़ कर झूरी सिंह के साथ उदवंत सिंह की पत्नी रत्ना सिंह के पास पहुंच कर सामने पटक दिया। क्योंकि रत्ना सिंह ने कसम खाई थी कि जब तक उदवंत सिंह की हत्या का बदला उन्हें नहीं मिल जाता वह चैन से नहीं जी सकतीं। इस घटना के बाद मुसई सिंह को पांच जुलाई को काला पानी की सजा सुनायी गयी और अन्डमान भेज दिया गया।

पाली गोदाम पर आंदोलनकारियों के हमले और अंग्रेज अफसरों की हत्या के बाद हुकूमत की चूलें हिल गई। फिर अंग्रेज अफसर जार्ज वाकर के आदेश पर कर्नल सार्जेंट और तना नूर के नेतृत्व में एक टुकड़ी पाली गोदाम भेजी गयी। जबकि कर्नल पीवाकर पांच जुलाई को ही पाली गोदाम पहुंच गया था। जिसके बाद सेना के साथ क्रांतिकारियों की जमकर मुठभेड़ हुई। फिर झूरी सिंह के गांव परऊपुर और सदौपुर गांव में अंग्रेजों ने आग लगा दिया। झूरी सिंह को पकड़ने के लिए ₹1000 और उनके साथियों को पकड़ने के लिए ₹500 का इनाम घोषित किया गया। 12 जुलाई को भदोही के नए ज्वाइंट मजिस्ट्रेट माखनलाल को आदेश दिया गया कि झूरी सिंह के साथियों को जल्द गिरफ्तार किया जाय।

रामेश्वर सिंह के अनुसार यूरोपीयन इतिहासकार ने लिखा है कि झूरी सिंह को व्यापक जन समर्थन प्राप्त था। झूरी सिंह को सेना संगठित करने और हथियार खरीदने के लिए अभोली, सुरियावां के कृपालपुर बिसौली और कारी गांव के लोगों ने आर्थिक मदद और छुपने के लिए शरण दिया। झूरी सिंह को पकड़ने के लिए मेजर वारनेट, साइमन, पी वाकर, इलियट और हैंग जैसे अधिकारियों के नेतृत्व में टीम गठित गयी। इसी बीच 24 अगस्त को मिर्जापुर में झूरी सिंह की मुलाकात जगदीशपुर आरा (बिहार) के क्रांतिकारी कुंवर सिंह से हो जाती है। जिसका नतीजा यह हुआ कि क्रांति की आग दुद्धी-सिंगरौली एवं रोहतास (बिहार) तक पहुंच गयी। क्रांतिकारियों ने घोरावल थाने को लूट लिया। रापटगंज की तहसील में आग लगा दी गयी। फिर आंदोलन की आग बढ़ती हुई रीवां यानी मध्य प्रदेश तक पहुंची गयी।

अंग्रेजों की फौज झूरी सिंह को गिरफ्तार नहीं कर पा रही थी, लेकिन झूरी सिंह के परिजनों पर अंग्रेजों का अत्याचार बढ़ता जा रहा था। झूरी सिंह छुपते-छुपाते नेपाल पहुंच गए, बाद में पूर्वी चंपारण होते हुए आरा पहुंचे। यहाँ रात्रि विश्राम करने के बाद सुबह चंदौली के रास्ते वाराणसी पहुंच गए। कपसेठी के लोहराडीह खुरैइयां गांव में उनकी ससुराल थी। लेकिन ससुराल के लोगों ने उनके खिलाफ साजिश रची। इसकी भनक खुद झूरी सिंह को नहीं लग पायी। ससुराल में झूरी सिंह के छिपे होने की सूचना पर अंग्रेज सिपाही उन्हें ससुराल से गिरफ्तार कर मिर्जापुर जेल में बंद कर दिया। जहाँ अंग्रेजी हुकूमत खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा चला। फिर मिर्जापुर के ओझला नाले पर उन्हें फांसी दे दी गयी। झूरी सिंह का बलिदान देश के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा गया।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)