Friday, September 20"खबर जो असर करे"

सिर्फ फौरी अंशदान से समृद्ध नहीं होगा किसान

– अरुण कुमार दीक्षित

कृषि कर्म अब लाभकारी नहीं रहा। किसानों को भारी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। उन्हें उपज का उचित मूल्य नहीं मिल पाता। लागत अधिक है और मुनाफा कम है। बीज महंगे हैं। कृषि यंत्र महंगे हैं। कारें सस्ती हैं। कृषि कार्य में उपयोग में लाये जाने वाले ट्रैक्टर महंगे हैं। कारों को बैंक तत्काल ऋण देते हैं। किसानों को ऋण देने में त्रस्त होने की सीमा तक चक्कर लगवाते हैं। सरकारी तंत्र द्वारा छूट के लिए दफ्तर पहुंचे किसानों को आदर नहीं दिया जाता। उन्हें कई बार परेशान किया जाता है। कागजी औपचारिकता के लिए सरकारी तंत्र की आदतें भी बैंकों जैसी हैं। बड़ी समस्या यह भी है कि फसलों के उत्पादन के बाद उपज बेचने के लिए बाजार उपलब्ध नहीं है। बिचौलियों का सहारा लेकर ही किसान अनाज बेच पाते हैं। कई बार बिचौलिए ही किसानों की भूमिका में देखे जाते हैं। इसका एक कारण यह भी है कि किसानों के पास अपनी उपज के भंडारण के लिए व्यवस्था नहीं है। सुनिश्चित स्थान नहीं है। जैसे ही फसल तैयार होती है किसान फसल लेकर नगरीय या निकट के बाजारों में बेचने के लिए जाते हैं। किसानों के उत्पादन में सबसे पहले बिचौलिए हावी होते हैं। मूल खरीदार बाद में आता है। किसान बिचौलियों की बातों में फंसकर अपनी उपज को कम मूल्य में ही बेचने को मजबूर होते हैं।

बिजली के बिल कुछ राज्यों में मुफ्त हैं। उत्तर प्रदेश में इसकी प्रक्रिया चल रही है। सरकार के इस कदम से किसानों को आर्थिक लाभ होगा। बिजली विभाग किस तरह से किस उपभोक्ताओं को दौड़ाता है, यह बात किसी से छिपी नहीं है। सरकार द्वारा लगातार कार्रवाई करने अच्छे निष्कर्ष की आशा है। राजनीति किसानों की बात सबसे पहले करती है, मगर किसानों की स्थिति आजादी से अब तक बहुत अधिक नहीं सुधरी है। यह कहा जा सकता है कि किसानों के पक्के घर बन गए हैं। वे आधुनिक सुविधाओं से लैस हैं। कारों से चलते हैं। उनका जीवन स्तर ऊंचा हुआ है। मगर वही किसान ठीक स्थिति में हैं जिनके पास खेती के अतिरिक्त भी आय के अन्य साधन भी हैं।

वैदिक साहित्य में वर्णन है कि पृथ्वी अपने आरंभिक काल में बिना जुताई के अति उर्वर थी। इसी कारण पृथ्वी का एक नाम उर्वी भी है।आगे कहा गया है कि मनुष्य सुख से कृषि करें। हल द्वारा सुख पूर्वक कर्षण अर्थात जुताई करें तथा रस्सियां सुखपूर्वक बद्ध हों। खेतों को बार-बार जोते जाने के साथ छहों ऋतुओं को संयुक्त किए जाने को कहा गया है। ऋषि पाराशर का कथन है कि देवता, असुर, मनुष्य सभी अन्न से जीवित हैं। अन्न धान्य से उत्पन्न होता है। अत: सभी कर्म छोड़कर कृषि करना चाहिए। ऋग्वेद में जुआ खेलना छोड़कर खेती करने को प्रेरित किया गया है। उस काल खण्ड में खेती करना श्रेष्ठ था। तभी तो घाघ कवि ने लिखा था कि उत्तम खेती, मध्यम बान।

संस्कृति, सभ्यताएं नदियों के किनारे पर अधिक विकसित हुई। मनुष्यों ने अपने निवास स्थान नदियों के तट पर बनाये। बृहस्पति संहिता के अनुसार मृदु मिट्टी वाली भूमि हर प्रकार की खेती के लिए उपयोगी है। खेती का संबंध सीता शब्द के साथ भी है। इसका अर्थ है जुती हुई भूमि। हल के फाल से बनने वाली रेखाएं सीता कही गई हैं। लोक भाषा के कवि घाघ कहते हैं कि धान की खेती के लिए हल्की जुताई उपयुक्त होती है। प्राचीन खेती की परंपरा में खेतों को चक्रीय व्यवस्था से वर्ष में एक बार सूर्य ताप में तपने के लिए चार माह तक परती रखा जाता था। इसे वैज्ञानिक सिलिका कहते हैं। परती भूमियों में कार्बन अवशोषित करने की क्षमता कई गुना बढ़ जाती है।

अब खेत खाली नहीं छोड़े जाते हैं। कोई सत्तर-अस्सी के दशक तक कृषि की यह परंपरा रही है। बाद में वैज्ञानिक यह बताने लगे कि लगातार फसलों से पैदावार के साथ आर्थिक स्थिति सुदृढ़ होगी। फिर रेडियो,टीवी पर खेती को लेकर सक्रियता बढ़ी। किसानों के लिए अलग से प्रसारण होने लगे। नए-नए उर्वरकों का प्रचार बढ़ा।

किसानों ने वैज्ञानिकों के सुझावों को माना। धुआंधार खेती की शुरुआत कर दी। अब कोई किसान खेत दो से तीन माह खाली नहीं छोड़ता है। लगातार आर्थिक लाभ के गणित कृषि वैज्ञानिक बताते हैं। उनके सुझाव थे कि भारत में परम्परागत एक साथ एक खेत में छ: से सात तरह की फसलें लेना ठीक नहीं है। खेती व्यावसायिक करें लाभ होगा। विभिन्न तरह के उर्वरकों के तेजी से प्रयोग बढ़ गए। परिणाम स्वरूप मिट्टी की उत्पादन शक्ति घट गई। उर्वरकों के साथ कीटनाशकों का अंधाधुंध प्रयोग हुआ। पहले मिट्टी की शक्ति घटने की बात कही गयी। बाद फिर शोध में आया कि कीटनाशकों के प्रयोग से रसायनों के कुछ तत्व फलों,सब्जियों अन्य फसलों के उत्पादों के द्वारा व्यक्ति के शरीर में पहुंच रहे हैं। इससे कैंसर जैसी घातक बीमारियां बढ़ रही हंै। यह निष्कर्ष भी वैज्ञानिकों और चिकित्सकों के हैं।

वर्तमान में जैविक खेती और जैविक खाद के प्रयोग के कार्यक्रम हैं। विचार गोष्ठियां हो रही हैं। जैविक विषय को लेकर सरकारें कार्यक्रम बना। रहीं है। मगर गांव तक जैविक खेती और जैविक खाद की प्राथमिकता समझा पाने में कृषि वैज्ञानिकों से लेकर कृषि विभाग व उससे जुड़े अन्य विभाग अब तक नाकाम हंै। दूसरी तरफ माटी का स्वास्थ्य खराब हो रहा है। यह बात अलग है कि मृदा परीक्षण कार्यक्रम भी कई क्षेत्रों में चलाए जा रहे हैं,मगर उनसे अभी तक कोई विशेष लाभ होता नहीं दिख रहा है। भूमि बंजर हो रही है। नमी घट रही है। जल के स्रोत दूर जा रहे हैं। जल स्रोतों के रिचार्ज के लिए जल संचयन की रस्में जारी है। छोटी नदियों नालों में बांध, चेक डैम से जल स्रोत बढ़ सकते हैं। मगर नौकरशाही की रुचि नहीं है। राजनीति जल संचयन, जल संरक्षण के सटीक प्रयोग का अध्याय ही नहीं जानती तो राजनीतिक दल इस विकराल समस्या से दूर ही हैं। कृषि के पारंपरिक तरीकों के साथ यदि बहुत आवश्यक हो तभी रासायनिक प्रयोग की अनुमति होनी चाहिए।

एम. एस. स्वामीनाथन के नेतृत्व में वर्ष 2004 में एक किसान आयोग गठित किया गया। आयोग ने किसानों को परिभाषित करने के सवाल पर विचार किया। इस नीति के प्रयोजन के लिए किसान शब्द का तात्पर्य ऐसे व्यक्ति से होगा जो फसल उगाने और अन्य प्राथमिक कृषि वस्तुओं के उत्पादन की आर्थिक या आजीविका गतिविधियों में लगा हुआ है। इसके अतिरिक्त कृषि मजदूर, बटाईदार, किराएदार, पशुपालक, बागान मालिक, कृषि वानिकी विभिन्न कृषि संबंधी व्यवसाय में लगे व्यक्ति शामिल है। वर्ष 2007 स्वामीनाथन आयोग के अनुसार किसान की यह परिभाषा है।

केंद्र की एनडीए सरकार के न्यूनतम समर्थन मूल्य का निर्णय स्वागत योग्य है। कृषि उत्पादन लागत मूल्य के जानकारों का कहना है कि यह समर्थन मूल्य और अधिक होना चाहिए था। यहां यह बात सरकार को समझनी चाहिए कि किसान आंदोलन में दिल्ली कूच करने वाले कथित किसानों के आधार पर शेष किसानों को जोड़कर नहीं देखना चाहिए। किसानों की अनेक समस्याओं का पता लगाने के लिए नए ढंग से सर्वे और समिति गठित होनी चाहिए। तभी सरकार किसानों के हितों की कार्रवाई में सफल हो सकती है। भारत सरकार द्वारा जारी आंकड़ों पर दृष्टि डालें तो वर्ष 2011 की सामाजिक आर्थिक जनगणना के अनुसार भारत की 51 प्रतिशत ग्रामीण आबादी भूमिहीन है । देश में भूमिहीन खेतिहर मजदूरों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है ।

किसानों पर ऋण भी तेजी से बढ़ता जा रहा है। प्रधानमंत्री ने 18 जून को प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि की 17वीं किस्त के तहत 9.26 करोड़ किसानों के खाते में 20,000 करोड़ रुपये हस्तान्तरित किए गए हैं। उल्लेखनीय है कि किसान सम्मान निधि योजना फरवरी वर्ष 2019 में आरम्भ की गयी थी। इससे किसान को तात्कालिक छोटी-मोटी जरूरतें पूरी करने में सुविधा हो जाती है। मगर अन्नदाताओं के लिए ठोस कार्य योजना के अभाव के चलते ही इस तरह की नगद धनराशि देनी पड़ रही है। जब तक किसानों की भूमि, सिंचाई, फसल उत्पादन, प्रबंधन एवं उनके लिए अच्छे बाजार, सस्ते ट्रैक्टर व अन्य कृषि यन्त्र और किसानो की सुरक्षा के अवसर उपलब्ध नहीं होंगे। किसानों का समृद्धि शाली होना दिवास्वप्न ही है। कृषि को उद्योग का दर्जा दिये जाने की मांग काफी पुरानी है। भारतीय किसान संघ की भी मांग है कि किसानों का लाभकारी मूल्य दिये जायें और सरकार किसानों से संवाद करे।