Friday, November 22"खबर जो असर करे"

विवाह भारतीय समाज की मजबूती का आधार

– हृदयनारायण दीक्षित

आधुनिक सभ्यता के प्रभाव शुभ नहीं हैं। जीवन के सभी आयामों में आधुनिकता का बुरा प्रभाव पड़ रहा है। परिवार खूबसूरत संस्था है। लेकिन आधुनिकता की चपेट में है। वस्तुतः आधुनिकता प्राचीनता का ही हिस्सा है और उसी का विकास है। भारत प्राचीन सभ्यता है। इस सभ्यता का सतत् विकास हुआ है। आधुनिकता और प्राचीनता को खण्डों में नहीं बांटा जा सकता। प्राचीन सभ्यता से विकसित होकर बनने वाली आधुनिकता स्वागत योग्य है। लेकिन वर्तमान भारत की आधुनिकता में विदेशी सभ्यता की वरीयता है। यह प्राचीन भारतीय सभ्यता, दर्शन और अनुभूति को पिछड़ापन मानती है।

उधार की विदेशी आधुनिकता ने राष्ट्रजीवन के सभी क्षेत्रों को कुप्रभावित किया है। ऋग्वेद के रचनाकाल के पहले ही भारत की संस्कृति और सभ्यता का विकास हो चुका था। भारतीय सभ्यता में परिवार आत्मीय संगठन थे। परिवार के सभी सदस्यों के एक साथ रहने और रमने के सूत्र आज भी दिखाई पड़ते हैं। विवाह पवित्र सामाजिक संस्कार है। इसके विकास में काफी समय लगा होगा। यह सतत् प्रवाहमान सामाजिक विकास का परिणाम है। विवाह ही प्राचीन समाज की मजबूती का आधार रहे हैं। वे स्त्री और पुरुष के बीच नेह बंधन में बंधे हुए थे। अब उधार की आधुनिकता ने ‘लिव इन’ नाम का दुखद दृश्य प्रस्तुत किया है।

‘लिव इन’ दोनों को संताप में रखता है। भारतीय समाज परिवारों में ही विकसित हुआ है। परिवार के सभी सदस्यों के सुख-दुख एक समान रहे हैं। सब साथ साथ रहते थे। साथ-साथ उत्सव मनाते थे। वरिष्ठ नई पीढ़ी के साथ आनंदित रहते थे। वृद्ध ऐसे परिवारों के संचालक, नीति निर्माता और मुखिया रहे हैं। लेकिन उधारू सभ्यता के कारण परिवार के सदस्यों के मध्य अंतर्संवाद व अंतर्संगीत नहीं है। सब अलग-अलग रहना चाहते हैं। उधार की विदेशी आधुनिकता के कारण उपयोगितावाद मार्गदर्शी हो रहा है।

जीवन की सांझ में वृद्ध उपयोगी नहीं दिखाई पड़ते। वृद्ध अकेले हैं। माता-पिता और अन्य वरिष्ठ प्राचीन भारतीय सभ्यता में आदरणीय रहे हैं। आधुनिक विदेशी सभ्यता के प्रभाव में परिवार के वरिष्ठ जनों का आदर घटा है। वृद्धों की सेवा पुत्रों-पौत्रों का दायित्व है। परिवार के सदस्य वरिष्ठों को घर में छोड़कर अलग रहते हैं। वृद्ध उपयोगी नहीं हैं। वे स्वयं अपना शरीर भी नहीं संभाल पाते। शारीरिक जीर्णता के साथ मानसिक संताप भी जुड़े हैं। वृद्ध मानसिक अवसाद में हैं।

संवेदनाएं कुचालक हो गई हैं। परस्पर आत्मीयता घटी है। पश्चिम की सभ्यता आधुनिकता बनकर समाज तोड़ रही है। ऐसी सभ्यता से जुड़े विद्वान भारत में स्त्री की उपेक्षा का आरोप लगाते हैं। ऋग्वेद में विवाह नाम के उत्सव का वर्णन बार-बार पठनीय है। ऋग्वेद (10.85) में सूर्य पुत्री सूर्या के विवाह का रोचक वर्णन है। सूर्य प्रकृति की विराट शक्ति हैं। आराध्य हैं। यहां उनकी पुत्री के विवाह का उत्सव वर्णन है। यह वर्णन निरा काल्पनिक नहीं हो सकता।

ऋग्वेद में विवाह के समय वर कहता है, ”हे वधू सौभाग्य वृद्धि के लिए मैं आपका हाथ ग्रहण करता हूं। तुम मेरे साथ सदा रहना।” अग्नि देवता के चारों ओर सात चक्कर लगाने की परम्परा सप्तपदी में भी है। सर्वोच्च न्यायपीठ ने इसी सप्ताह सप्तपदी को अनिवार्य बताया है। विवाह के पहले पिता का घर ही कन्या का निवास होता है। विवाह के समय ऋषि आशीष देते हैं, ”हम आपको पितृकुल से मुक्त करते हैं और पतिकुल से सम्बद्ध करते हैं।” स्तुति है कि,”हे इंद्र यह वधू सौभाग्यशाली हो।”

पश्चिम प्रभावित भारतीय विद्वान नोट कर सकते हैं कि वैदिक काल में नारी की स्थिति कार्यपालक अधिकारी जैसी है। ऋग्वेद में कहते हैं,”यह नारी पूरे परिवार की प्रतिष्ठा वृद्धि करने वाली हो।” देवों से स्तुति है कि, ”इसे संतति युक्त सौभाग्यशाली बनाएं।” फिर सामूहिक आशीर्वाद देते हैं, ”आप सास, ससुर, ननद व देवर की साम्राज्ञी बनें। पूरे परिवार की स्वामिनी बनें।” प्राचीन काल में स्त्रियां युद्ध में भी हिस्सा लेती थीं। युद्ध साधारण कर्म नहीं है।

ऋग्वेद में विप्सला नाम की महिला के पैर टूटने का विवरण है। अश्विनी देवताओं ने टूटे पैर की जगह किसी धातु का कृत्रिम पैर लगाया था। इसी तरह एक महिला मुदग्लानी की भी वीरता का उल्लेख है। वैदिक काल की इसी परम्परा के दर्शन रामकथा में भी मिलते हैं। कैकई भी दशरथ के साथ युद्ध भूमि में थीं। लोपामुद्रा भी वैदिक मंत्रों की रचयिता हैं। पुरुष और स्त्री में भेदभाव की बातें व्यर्थ हैं।

आधुनिक विदेशी सभ्यता स्त्रियों को सम्माननीय दर्जा नहीं देती। इस सभ्यता ने उन्हें पुरुष से भिन्न अलग वर्ग बनाने के प्रयास किए हैं। वैदिक काल में स्त्री और पुरुष साथ-साथ काम करते हैं। वैदिक समाज का सर्वाधिक प्रिय पेय है सोम। ऋग्वेद के अनुसार पति-पत्नी दोनों मिलकर सोम पीसते हैं और साथ-साथ सोमरस का आनंद लेते हैं। साथ-साथ देव स्तुतियां भी गाते हैं। पत्नियां अपने पतियों के साथ पर्व उत्सवों में हिस्सा लेती थीं। एक मंत्र के अनुसार अग्नि देव से स्तुति है कि वे 33 देवताओं को पत्नियों सहित यज्ञ उत्सव में लाएं।

जीवन दिक्काल के भीतर है। जिसका जन्म होता है उसकी मृत्यु भी होती है। जन्म के बाद धीरे-धीरे शैशव विकसित होता है। सम्भावना का घट टूटता है। जीवन ऊर्जा ऊर्द्धवगामी होती है। तब आती है तरुणाई। तरुणाई भी अल्पकालिक है। सूर्य आते हैं। उदित होते हैं। कालरथ का पहिया घूमता है। शरद आती है। हेमन्त, शिशिर आते हैं। तमाम पूर्णिमा और बार-बार अमावस। जीवन का संध्याकाल आता है। शरीर जीर्ण होता है। ऊर्जा घटती है। आंखों की ज्योतिर्मयता घटती है।

जन्म और मृत्यु के बीच बड़ा फासला नहीं होता। सामान्यतया 60 वर्ष की वय में वृद्धावस्था प्रकट हो जाती है। वृद्ध होना सबकी नियति है। सभ्यता और संस्कृति में वृद्धों के सम्मान को महत्वपूर्ण कर्तव्य बताया गया है। महाभारत के यक्ष प्रश्नों में माता-पिता को श्रेष्ठ स्थान दिया गया है। यक्ष ने युधिष्ठिर से पूछा, ”आकाश सबसे ऊंचा है। हे धर्मराज आप बताएं कि आकाश से ऊंचा क्या है?” युधिष्ठिर ने उत्तर दिया, ”पिता आकाश से ऊंचा है।” यक्ष ने फिर पूछा, ”पृथ्वी के गुरुत्व और भार से भारी क्या है?” युधिष्ठिर ने उत्तर दिया, ”माता पृथ्वी से भारी है। माता सृष्टि की आदि अनादि अनुभूति है। हम सब मां का विस्तार हैं।”

हमारे भीतर माता और पिता दोनों की उपस्थिति है। लेकिन जीवन की सांझ में वे एकाकी हैं। वे चाहते हैं कि पौत्र और पौत्रियां उनका हाल-चाल लें। उनसे बातें करें। वे डांटें तो हम उनकी डांट खाकर भी प्रसन्न रहें। वृद्धों के पास जीवन अनुभव होते हैं। ऋग्वेद के एक सुन्दर मंत्र में सभी वरिष्ठों को नमस्कार किया गया है, ”इदं नमः ऋषेभ्यः पूर्वजेभ्यः पूर्वेभ्यः पथिकृदभ्यः-ऋषियों को नमस्कार है। पूर्वजों को नमस्कार है। वरिष्ठों व मार्गदर्शकों को नमस्कार है।” (ऋग्वेद 10.14.15) वरिष्ठों के सम्मान का यही तत्व महाभारत में भी है। कहते हैं कि, ”वह सभा सभा नहीं है जिसमें वृद्ध नहीं हैं। वह वृद्ध वृद्ध नहीं हैं। जो धर्मतत्व नहीं जानते।” उधार की विदेशी सभ्यता ने इस परम्परा को उपयोगितावाद के हवाले कर दिया है। यह शुभ नहीं है। भारत को प्राचीनता के गर्भ से जन्म लेने वाली आधुनिकता की आवश्यकता है।

(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)