Saturday, November 23"खबर जो असर करे"

पंचायती राज की मूलभावना और हम

– कुलभूषण उपमन्यु

लंबे इंतजार के बाद पंचायती राज ने नाममात्र की स्थानीय स्वशासन की इकाई से एक संवैधानिक वास्तविक शक्ति संपन्न स्वशासन की इकाई होने तक का सफर तय किया है। शुरू में पंचायती राज कानूनों में यह लिखा रहता था कि पंचायतें, राज्य सरकार के एजेंट के रूप में कार्य करेंगी। पंचायतें, राज्य सरकारों के रहम पर निर्भर थीं। अपनी इच्छा से पंचायतों का चुनाव होता था। कोई निश्चित अवधि नहीं थी। बजट का भी निश्चित प्रावधान नहीं था। हालांकि महात्मा गांधी पंचायतों को शासन की रीढ़ बनाना चाहते थे, किन्तु संविधान में पंचायती राज को राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों में स्थान देकर भविष्य में स्थापित करने के संकल्प के रूप में स्थापित किया गया। 73 वें संविधान संशोधन के बाद पंचायतों को संवैधानिक दर्जा मिला। हर पांच साल में चुनाव होने लगे। राज्य वित्तायोग के माध्यम से निश्चित बजट मिलने लगा। पंचायत की विकास योजना बनाने की जिम्मेदारी पंचायत की ग्रामसभा के हवाले की गई। पंचायतों का वास्तविक स्वतंत्रता से कार्य करने का मार्ग प्रशस्त हुआ। इस बड़ी उपलब्धि के बाबजूद पंचायती राज की मूल भावना के अनुरूप, ग्रामसभा को वास्तविक रूप से असली शक्ति हस्तांतरित करने का मूल कार्य अभी होना बाकी है।

पंचायतों को प्रत्यक्ष प्रजातंत्र की इकाई के रूप में देखा गया है। इसी उद्देश्य से पंचायतों में बड़ी आबादी को देखते हुए यह सोचा गया था कि पंचायत में अनेक गांव होने के चलते उनकी समस्याएं विविध होती हैं जहां प्रत्यक्ष निर्णय कई बार कठिन होता है। इसलिए कई राज्यों ने वार्ड स्तर पर पल्ली सभा या उप ग्रामसभा का प्रावधान किया गया है। हिमाचल प्रदेश में भी उप ग्रामसभा का प्रावधान है। इसके पीछे अपेक्षा यह थी कि गांव के लोग सामूहिक चर्चा के द्वारा गांव की सामूहिक समस्याओं और एक-दूसरे की निजी समस्याओं को नजदीकी रिश्तों के कारण बेहतर समझते हैं। इसलिए उनके निराकरण की बेहतर योजना भी बना सकेंगे। इस व्यवस्था में सहज ही पारदर्शिता भी बनाई जा सकेगी और इससे भ्रष्टाचार पर भी अंकुश लगेगा। किन्तु तमाम अच्छी बातों के बाबजूद पंचायत राज संस्थाएं निहित स्वार्थों की भेंट चढ़ती दिख रही हैं। हालांकि बहुत सी अपेक्षाएं पूरी भी हो रही हैं। बजट काफी मात्रा में मिल रहा है, किन्तु ग्रामसभा को सशक्त करने और पारदर्शिता को सुनिश्चित करने का कार्य पिछड़ता लग रहा है। इसके साथ ही प्रशासनिक स्तर पर पंचायतों को सशक्त करने के बजाए नियंत्रित करने के प्रयास अधिक हो रहे हैं।

पुरानी समझ, जिसमें पंचायतों को सरकार का एजेंट के रूप में देख कर प्रशासनिक नियंत्रण में रखा जाता था लगभग उसी दिशा को मजबूत करने के प्रयास होते रहते हैं। योजना निर्माण के बदले इच्छित सूची बनाने का कार्य होता है जो चुने हुए प्रतिनिधियों की इच्छाओं पर ज्यादा निर्भर होता है। पंचायत प्रतिनिधि भी अंदर खाते यह कोशिश करते रहते हैं कि ग्रामसभा का कोरम कम से कम रहे तो मनमाना फैसला करने का अवसर चुनी हुई कार्यकारिणी को मिल जाए। आम लोग भी समझ और जानकारी के अभाव में इस स्थिति से समझौता कर बैठे हैं। पंचायत प्रतिनिधि ग्राम पंचायत की ग्रामसभा को सशक्त करके एक निर्णय सक्षम इकाई के रूप में विकसित करने के बजाए निर्माण कार्यों को क्रियान्वित करने तक सीमित होते जा रहे हैं।

इसमें कई जगह प्रशासन और पंचायत कार्यकारिणी की मिलीभगत भी दिखाई देती है, जिसके द्वारा निर्माण कार्यों का पैसा बचा कर आपस में बंटवारा करने की प्रवृति झलकती है। कोशिश की जाती है कि मनरेगा जैसे कार्यों में भी उन्हीं कार्यों को प्राथमिकता दी जाए जिनमें कुछ सामग्री खरीद की जरूरत हो। प्राकृतिक संसाधन विकास करने की दिशा में तो न ग्रामसभाओं में चर्चा होती है न ही प्रशासनिक दबाव बनाया जाता है। इसके चलते गांव के चरागाह, जंगल, और जलस्रोतों का संरक्षण हाशिये पर ही रहते हैं। एक समय का उत्पादक पशुधन सड़कों पर लावारिस घूम रहा है। कचरा प्रबन्धन की अत्यंत आवश्यकता है। किन्तु स्वच्छता अभियान के दबावों के बाबजूद गांव प्लास्टिक कचरे से पटते जा रहे हैं। तमाम खर्चों के बाबजूद ग्रामीण सिंचाई व्यवस्था चौपट होती जा रही है। गांव में छोटे-मोटे झगड़े भी जिनका समाधान पंचायतों के अधिकार क्षेत्र में है, वे भी पुलिस के पास पंहुच रहे हैं। झगड़ों को पुलिस के योग्य बनाने के लिए ज्यादा संगीन बना कर पेश किया जाता है। प्रजातांत्रिक समाज की समझ का विकास न होने के चलते राजनीतिक विरोध को निजी दुश्मनी की तरह देखा जाने लगा है।

यह विसंगतियां धीरे-धीरे पंचायती राज को कमजोर करेंगी। इसके लिए ग्राम स्तरीय सूक्ष्म स्तरीय विकास योजना का कार्य सघन स्तर पर किया जाना चाहिए, जिससे लगातार ग्रामसभा स्तर पर विकास की व्यापक समझ का प्रशिक्षण दे कर नई प्रजातांत्रिक समझ के विकास के प्रयास होने चाहिए। सामाजिक समरसता और सामाजिक न्याय की समझ का विकास किया जाना चाहिए। यह भी देखा जाना चाहिए कि क्या पंचायत प्रतिनिधियों को विकास कार्यों के क्रियान्वयन का जिम्मेदार बनाना ठीक है। या इसके लिए अलग तकनीकी और प्रशासनिक व्यवस्था को जिम्मेदार बनाया जाए जो अपनी नौकरी तक किए गए कार्यों के प्रति जवाबदेह हों। इससे पंचायत प्रतिनिधियों को निगरानी, विधाई, न्यायिक और जागरुकता संबंधी कार्य करने के लिए समय मिलेगा और पंचायत को स्वशासन की इकाई बनाने का असली वातावरण बनाया जा सकेगा।

(लेखक, जल-जंगल-जमीन के मुद्दों के विश्लेषक और पर्यावरणविद् हैं।)