– गिरीश्वर मिश्र
संस्कृति लोक-जीवन की सतत सर्जनात्मक अभिव्यक्ति का पुंज होती है जिसका इतिहास, साहित्य, शिक्षा, विविध कला रूपों, स्थापत्य, शिल्प तथा जीवन-शैली आदि के साथ घनिष्ठ संबंध होता है। संस्कृति को उन उदात्त जीवन मूल्यों के रूप में भी देखा जाता है जो आदर्श रूप में प्रतिष्ठित होते हैं और समाज की गतिविधि के लिए उत्प्रेरक का काम करते हैं। बहु आयामी संस्कृति की सत्ता उन अनेकानेक मूर्त और प्रतीकात्मक परंपराओं में रची-पगी विभिन्न रूपों में सामाजिक जीवन में उपस्थित रहती है। वह वाचिक प्रथाओं और व्यवहारों के प्रत्यक्ष अभ्यासों के रूप में पीढ़ी-दर-पीढ़ी संक्रमित होते हुए आगे बढ़ती है। संस्कृति के सभी पक्षों में समय के साथ परिवर्तन भी अनिवार्य रूप से घटित होते हैं। दूसरी संस्कृति(यों) के साथ सहयोग और (या) संघर्ष की प्रवृत्ति वाले प्रभाव भी जन्म लेते हैं। उनको लेकर क्रिया- प्रतिक्रिया भी होती है। इसलिए ऐतिहासिक दृष्टि से देखने पर आतंरिक और बाह्य प्रभावों के फलस्वरूप संस्कृति में उतार-चढ़ाव भी परिलक्षित होते हैं।
संस्कृति-यात्रा के मार्ग में व्यवधान भी आते हैं, संस्कृति का रूपांतरण भी होता है, अंशत: क्षरण या लोप भी होता है। अपसंस्कृति की चुनौती भी आती है और सांस्कृतिक पुनराविष्कार तथा पुनर्जीवन भी होता है। दूसरी संस्कृति(यों) के साथ संपर्क में आने पर उनके बीच होने वाला पारस्परिक संवाद और आदान-प्रदान कई प्रकार का होता है। विभिन्न सांस्कृतिक प्रभावों की आवाजाही निरंतर बनी रहती है। कहना न होगा कि सांस्कृतिक संपर्क का वेग और आकार संचार, राजनैतिक रिश्तों व गमनागमन की सुविधाओं की उपलब्धता के साथ घटता-बढ़ता रहता है। आज के वैश्वीकरण के दौर में सूचना प्रौद्योगिकी क्रांति के चलते कई स्तरों पर सांस्कृतिक संचरण अप्रत्याशित रूप से प्रबल हो रहा है परंतु महात्मा गांधी के शब्दों में कहें तो श्रेयस्कर स्थिति यही है कि हम अपनी जमीन पर टिके रहें और घर की खिड़कियाँ खुली रहें ताकि बाहर की हवा आती-जाती तो रहे पर हम जड़ों से न उखड़ें। तभी संस्कृति की अनुकूलता और उर्वरता बनी रहती है। भारत में संस्कृति के स्वरूप, उसमें बदलाव और अपसंस्कृति के प्रश्न चर्चा के केंद्र में आ रहे हैं।
वस्तुत: संस्कृति वर्तमान में रहते हुए एक ओर अतीत को प्रतिबिंबित करती है तो दूसरी ओर भविष्योन्मुखी दृष्टि से समाज को विभिन्न जीवन व्यापारों में संलग्न करती है। समाज स्वभाव से ही कर्म या व्यवहार के धरातल पर अपने को निरंतर रचने-रचाने में लगा रहता है। इसीलिए संस्कृति हमें सदैव गतिशील रूप में ही उपलब्ध रहती है। उपनिषद् की शब्दावली में चरैवेति ! चरैवेति ! -ही संस्कृति की जीवन्तता सूत्र है, वही कल्याणकारी है : चरन् वै मधु विन्दति। यह अलग बात है कि समझने की सुविधा के लिए हम संस्कृति का एक ठहरा रूप (स्टिल फोटोग्राफ) ग्रहण कर लेते हैं और उसे चिरस्थायी मानने का भ्रम भी पाल बैठते हैं।
चूंकि मनुष्य स्वभावत: एक संस्कृतिजीवी प्राणी है, संस्कृति की जीवन्तता बनाए रखना प्रत्येक समाज का दायित्व बन जाता है। आज विश्व में प्रत्येक सचेत समाज अपनी संस्कृति को संजोने और समृद्ध करने के लिए यत्नशील देखा जा सकता है। संसार में हर जगह अपने सांस्कृतिक गौरव-बोध बनाए रखने के लिए तरह- तरह के प्रयास किये जा रहे हैं और इस कार्य को मानवोपयोगी स्वीकार करते हुए वैश्विक स्तर पर यूनेस्को जैसी संस्था गठित की गई है जो सांस्कृतिक संसाधनों के संरक्षण और संवर्धन के कार्य को अंजाम देती है। सभी देश अपने यहाँ की संस्कृति के विभिन्न पक्षों को लेकर नाना प्रकार के आयोजन करते रहते हैं। यह स्वाभाविक भी है क्योंकि संस्कृति समाज के लिए स्मृति की भांति कार्य करती है जिसके बिना अपनी पहचान और अस्मिता का निर्माण कठिन चुनौती बन जाती है। इस तरह संस्कृति का स्पंदन सामाजिक जीवन को समृद्ध करता है और उत्कृष्टता की ओर निर्दिष्ट करता है। संस्कृति में संलग्नता अनंत संभावनाओं को जन्म देती है।
संस्कृति स्वभाव से लोकतांत्रिक प्रक्रिया होती है और सांस्कृतिक क्षेत्र के बीच पर्याप्त साझेदारी होती है और उस क्षेत्र के निवासियों के बीच घनिष्ठ सामाजिक-सांस्कृतिक सम्बन्ध होते हैं। भारतीय संस्कृति के निर्माण में विभिन्न धर्मों, जातियों, जन-जातियों, समुदायों की विविध परम्पराओं की उल्लेखनीय भूमिका रही है। लोक और शास्त्र दोनों ही दृष्टियों से संस्कृति की यात्रा चलती रही है। इस क्रम में विराट और लघु सांस्कृतिक परम्पराओं की अन्यान्य श्रृंखलाएं विकसित होती रही हैं। यह सब उपक्रम वैविध्यपूर्ण है और अत्यंत विस्तृत क्षेत्र में होता आ रहा है। इन सबसे यही संकेत मिलता है कि यहाँ की संस्कृति अनेक क्षेत्रों और आयामों में समृद्ध है। इसका स्मरण मात्र ही हर्ष से रोमांचित करने वाला है कि हम कितनी बड़ी और बहुलता वाली विविधवर्णी सांस्कृतिक संपदा के वारिस हैं।
इस प्रसंग में यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि विकास के पथ पर अग्रसर और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और प्रौद्योगिकी को आत्मसात कर रहे उत्तर प्रदेश के जीवन में गावों की विशेष भूमिका है। गाँव का स्मरण करते हुए हमें एक विलक्षण अन्तर्विरोध दिखता है। एक ओर वहां सरल जीवन है तो दूसरी ओर कठिन जीवन की परिस्थितयां हैं। गाँव वस्तुत: अद्भुत हैं और यहाँ रहने वाले लोग भी कठिन परिस्थितियों में भी जिवीविषा के साथ जीवन-यापन कर रहे हैं। कभी राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने यदि कहा अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है, क्यों न इसे सबका मन चाहे तो कविवर सुमित्रानंदन पन्त ‘भारत माता ग्रामवासिनी’ में कहते हैं खेतों में फैला है श्यामल, धूल भरा मैला सा आँचल, गंगा यमुना में आंसू जल, मिट्टी की प्रतिमा उदासिनी। यह विसंगति गाँव की नियति बन गई है।
पिछले दशकों में परिस्थितियां बदली हैं और विकास को शहर केंद्रित मान कर चला गया है और उसी के साथ गाँव और शहर दोनों की संरचना और स्वभाव भी बदला है फिर भी उत्तर प्रदेश के सांस्कृतिक परिदृश्य की चर्चा में गाँव के लोक-जीवन को केंद्र में रखना आवश्यक होगा जो संस्कृति का मूल उत्स है। इस दृष्टि से यह रेखांकित किया जाना आवश्यक है कि प्रदेश की संस्कृति मूलत: लोकाभिमुख है और गहन लोक-व्याप्ति ही उसकी शक्ति है। इस संस्कृति की सर्वप्रमुख विशेषता उसकी वाचिकता है। आज भी ग्रामीण क्षेत्र में वाचिक परम्पराओं में रची-बसी जीवन-चर्या सभी पृष्ठभूमियों के आम जनों के जीवन में प्रखर रूप में जीवित है। वाचिक परम्परा में ढले लोक-नाट्य, लोक-गीत और लोक-वाद्य आज भी मेले, पर्व और उत्सव में आकर्षण के केंद्र रहते हैं। वाचिकता में मानवीय रिश्तों की निकटता और ऊष्मा स्वाभाविक रूप से पारस्परिकता और साझेदारी का अवसर देती है।
तीव्र नगरीकरण और बाजार के प्रभाव बढ़ने के बावजूद देश की जनसंख्या के बहुत बड़े भाग में आज भी जीवन में कृषि-कर्म केंद्रीय बना हुआ है और सांस्कृतिक चेतना को अनुप्राणित करता है। धरती और ऋतुएँ आज भी खेती-किसानी के इर्द-गिर्द जीवन को संचालित कर रही हैं। इस विस्तृत लोक-जीवन में सांस्कृतिक आयोजन (जैसे-भिखारी ठाकुर के नाटक, नौटंकी, लोरिकायन, इसुरी के फाग, रासलीला, रामलीला, हरि-कीर्तन, भागवत कथा, रामकथा) और विभिन्न अंचलों में प्रचलित लोक-गायन (जैसे-बिरहा, आल्हा, सोहर, चैता, होली, कजरी, संस्कार-गीत, श्रम-गीत) बहुमूल्य सांस्कृतिक सम्पदा निर्मित करते हैं। लोक-संस्कृति की सम्पन्नता यहाँ की वेशभूषा, खानपान, व्यंजन, तीज-त्योहार, रहन-सहन, भाषा-बोली इत्यादि में परिलक्षित होती है। घर में प्रयुक्त छोटे-छोटे उपकरण भी स्थानीयता की छाप रखते हैं। पशु, पक्षी, वृक्ष, लता, गुल्म, फल, फूल, शाक, सब्जी, जड़ी, बूटी आदि की विविधता से परिचित कराता यहाँ का पर्यावरण ज्ञान और अनुभव की दृष्टि से समृद्ध करने वाला है। गाँव के परम्परागत व्यवसाय में लगे लोग अपने ज्ञान, अभ्यास, उपकरण और शब्दावली के साथ संस्कृति के सृजन और संरक्षण में भी लगे होते हैं।
आज जब जलवायु परिवर्तन, विषाक्त आहार, वायु और जल के प्रदूषण की समस्याओं से सारा विश्व जूझ रहा है, ग्राम्य जगत की सांस्कृतिक परम्पराएं प्रकृति के अनुकूल जीवन शैली के साथ प्रभावी विकल्प प्रस्तुत करती हैं। ऐसे में यहाँ की संस्कृति की विस्तृत अनमोल विरासत की रक्षा और संवर्धन समाज और सरकार दोनों का मानवीय दायित्व बन जाता है। इनका विस्मरण और हानि अपूरणीय क्षति होगी। लोक हमारे ज्ञान का अजश्र स्रोत है और विचार करें तो स्पष्ट हो जाएगा कि पूरे भारत के साहित्य जगत में यह लोक-ज्ञान और लोक-अनुभव कालजयी रचनाओं को जन्म देता रहा है।
आज टिकाऊ (सस्टेनेबल) विकास को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विकास कार्यक्रम (एसड़ीजी) का हिस्सा बनाया गया है। इस दृष्टि से संस्कृति का समावेश करते हुए ही विकास कार्य किये जाने का यत्न होना चाहिए। इसलिए सांस्कृतिक जीवन को समग्र रूप में ध्यान में रखते हुए ही प्रदेश के विकास की योजना उपयुक्त होगी। संस्कृति की व्यापक सत्ता अनेक स्तरों पर समाज के जीवन को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में प्रभावित करती है। वर्तमान में सरकारी तंत्र में अनेक विभाग और संस्थाएं हैं जो संस्कृति के विभिन्न पक्षों का दायित्व निर्वहन कर रही हैं। इनके बीच में सामंजस्य का अभाव है और संस्कृति को वरीयता का प्रश्न नहीं माना जाता। फलत: संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन का प्रश्न व्यवस्था के मकड़जाल में उलझ जाता है और शासन के सकारात्मक रुख के बावजूद अनेक योजनाएं आरंभ ही नहीं हो पाती हैं या फिर अपूर्ण रह जाती हैं अथवा कम गुणवत्ता के साथ और विलंब से पूरी हो पाती हैं। इस दृष्टि से सांस्कृतिक कार्य में तालमेल बिठाते हुए जन भागीदारी के साथ संस्कृति के संरक्षण और संवर्धन का कार्य आवश्यक है।
(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)