– गिरीश्वर मिश्र
पीछे मुड़ कर देखें तो आधुनिक भारत में स्वतंत्रता संग्राम के चलते राजनीति का रिश्ता देश-सेवा और देश के लिए आत्मदान से जुड़ गया था। इस पृष्ठभूमि के अंतर्गत राजनीति में आने वाले आदमी में निजी हित स्वार्थ से ऊपर उठ कर समाज के लिए समर्पण का भाव प्रमुख था। ‘सुराजी’ ऐसे ही होते थे। वे अपना खोकर सबका हो जाने की तैयारी से राजनीति में आते थे। स्वतंत्रता मिलने के साथ सरकार में भागीदारी ने राजनीति का चरित्र और उसका चेहरा-मोहरा बदलना शुरू किया। देखते-देखते नेता नामक जीव की वेश-भूषा, रहन-सहन आदि में बदलाव शुरू हुआ और जीवन की राह तेजी से आभिजात्य की ओर मुड़ती गई। विधायक या सांसद राजपुरुष होने की ओर बढ़ने लगे। मंत्री होना राजसी ठाट-बाट का पर्याय सा हो गया।
नेताओं का भी दरबार लगने लगा और वे प्रजा की सेवा से दूर होते चले गए। जनसेवक होने की जगह वे खुद अपने लिए जनसेवा कराने लगे। और अब इस तरह की व्यवस्था एक स्थायी रूप ले चुकी है। उसका शुद्ध रूप माननीयों के जनता दरबार में दिखता हैं जहां लोग अपनी फरियाद के साथ हाजिरी लगाते हैं। राजनीति सेवा की जगह धन उगाही के व्यापार का रूप लेता गया और राजनेताओं की सम्पत्ति दिन-दूनी रात चौगुनी बढ़ने लगी। राजनीति और धनार्जन की गठजोड़ के नए आयाम खुलते गए और राजनेताओं की आर्थिक समृद्धि का ग्राफ जिस चमत्कारी ढंग से बनने लगा वह अपने में बहुत कुछ कहता है। नेतृत्व करना या राजनीति का कर्म नेता के लिए धन-सम्पदा बटोरने का जरिया बनता गया। आज सब नेताओं के पास आय से अधिक सम्पत्ति होना एक आम बात हो चली है।
इसी के साथ एक पक्ष और प्रबल होने लगा कि राजनेता के परिवार और परिजन भी राजनीति में अवांछित दखल देने लगे। जन-सेवा और लोक संग्रह से कोसों दूर ये नए नवेले अगली पीढ़ी के राजनेता ज्यादातर अपनी कर्मठ जन-सेवा की बदौलत नहीं बल्कि वंशधर होने के कारण उसमें शामिल होने लगे। राजनीति जिसका आधार जनता के बीच से आया करता था वह सिमटने लगा। अपने विश्वस्त की तलाश करते वरिष्ठ या ‘सीनीयर’ राजनेताओं की आंखें घूम फिर कर अपने बेटी-बेटे, पत्नी, भाई, भतीजे और नाते-रिश्तेदारों पर टिकने लगीं। सच कहें तो राजनीति में भागीदारी उसके किरदारों को कुछ निजी या पारिवारिक पेशा, खेती-बारी, दुकानदारी या पुश्तैनी व्यापार जैसा लगने लगा।
फलतः जब एक राजनेता अपना उत्तराधिकारी खोजने लगा तो उसे जनता भूल-बिसर गई और वह अकसर जनता की ओर नहीं बल्कि अपने परिवार की ओर देखने लगा। कुछ को इसमें सफलता भी मिलने लगी। आखिर जनता ने जिस नेता पर कभी भरोसा कर समर्थन दिया था उस नेता के खून में भी तो दम होगा। उसे नेता की संतान में भी उसी नेता की छवि दिखने लगी । अगर उसमें नेतृत्व की वह योग्यता हो तो फिर क्या कहने! पर योग्यता न भी हो तो विरासत में मिला जनाधार से कुछ दिन काम चलता है। पर नए नेता के लिए ऐसे अनार्जित जनाधार ज्यादा दिन के लिए टिकाऊ नहीं हो सकते।
आज के भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में खानदानी नेताओं की जमात बढ़ती ही जा रही है। जैसे स्वतंत्रता मिलने के पहले रियासतें थीं कुछ-कुछ उसी तरह विभिन्न क्षेत्रों में राजनीतिक राजवंशों की बढ़त भी दिख रही है। एक बड़ा नेता राजनीति की अपनी रामकहानी भूल कर अपने पुत्र-पुत्री को अपना राजनीतिक उत्तराधिकार सौंपते दिख रहे हैं। राजनीतिक सरोकारों का इस तरह सिमटना देश और समाज के लिए और नए नेता दोनों के लिए अहितकर होता है। पर यह बात भुला कर विचार से परे हटा दी जाती है। राजनीतिक दल पारिवारिक दल में रूपांतरित हो जाता है और सत्ता का बंटवारा किया जाता है। असंतुष्ट होने पर परिवार टूटने के तर्ज पर पार्टी टूटती है। यह एक अजीब बदलाव है जो जनतंत्र की मूल प्रकृति और चरित्र के उलटा बैठता है। जनतंत्र तो जन से चलता है प्रजा में ही उसकी आत्मा बसती है और प्रजा-जन एक समान होते हैं परंतु नेताओं को प्रजा से न उभरना चिंताजनक हो रहा है ।
सारी लाज-हया छोड़ राजनीतिक वंशों का आधिपत्य बनाए रखने की घटनाएं राजनीति और लोकतंत्र दोनों के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं कही जा सकतीं। पर जिस तरह की परिस्थितियां बन रही हैं उससे लोकतंत्र की मुश्किल बढ़ रही है। खानदानी तौर पर राजवंश सरीखी राजनीति के प्रमुख दावेदारों की सूची बढ़ती जा रही है। स्थानीय और राष्ट्रीय राजनीति में इनके करतब सार्वजनिक रूप से ज्ञात हैं। इनका विस्तृत विश्लेषण यहां संभव नहीं है परंतु यह बात किसी से छुपी नहीं है कि स्वतंत्र भारत में विभिन्न दलों से आते ये परिवार और उनके परिजन सालों-साल राज-सत्ता पर आसीन हो कर सीधे या परोक्ष नियंत्रण से राजनीति करते हुए हमारे देश की दशा बनाते बिगाड़ते आ रहे हैं । लोकतंत्र के लिए वंशवाद खतरनाक है और राजनेताओं को इस पर विचार करना होगा।
(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)