Friday, November 22"खबर जो असर करे"

आपसी शह-मात के खेल में उलझा विपक्षी गठबंधन

– विकास सक्सेना

लोकसभा चुनाव में भाजपा को हरा कर मोदी को लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने से रोकने के लिए बनाए गए विपक्षी गठबंधन के नेता फिलहाल एक-दूसरे के खिलाफ ही षड़यंत्र रचने में जुटे हैं। सामान्य तौर पर राजनीति में भितरघात कुशल रणनीति माना जाता है, लेकिन इंडी गठबंधन में शामिल दलों के नेता इस सामान्य परम्परा का भी पालन करने को तैयार नहीं हैं। वे खुले मंचों से एक- दूसरे के खिलाफ अपशब्दों का प्रयोग कर रहे हैं। क्षेत्रीय दलों के निशाने पर सबसे ज्यादा कांग्रेस और उसके नेता हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की नेता वृंदा करात, केरल के मुख्यमंत्री पी विजयन और समाजवादी पार्टी नेता अखिलेश यादव जिस तरह कांग्रेस की नीतियों और नेताओं पर निशाना साध रहे हैं, उससे राजनैतिक हलकों में इस बात की चर्चा होने लगी है कि विपक्षी गठबंधन के ये नेता भाजपा को हराने के लिए एकजुट हुए हैं या फिर उनका उद्देश्य कांग्रेस को खत्म करना है।

लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल और नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड को विपक्षी गठबंधन का सबसे मजबूत साथी माना जा रहा था क्योंकि ये पहले से यूपीए का हिस्सा थे लेकिन इंडी गठबंधन में चर्चा के बिना ही इन्होंने आगामी लोकसभा चुनाव के लिए बिहार की लोकसभा की सीटों का आपस में बांट कर अपनी मंशा साफ कर दी है। बिहार की लोकसभा की कुल 40 सीटों में से राजद और जदयू ने 17-17 सीटें आपस में बांट ली हैं। बाकी बची छह सीटें कांग्रेस और वामपंथी दलों के लिए छोड़ी गई हैं। लोकसभा चुनाव 2019 में जदयू भाजपा के साथ गठबंधन में शामिल थी और उसने अपने हिस्से की 17 सीटों पर प्रत्याशी उतार कर 16 पर जीत हासिल की थी। इसलिए जदयू 17 से कम सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए तैयार नहीं है। अब यह देखना काफी रोचक होगा कि क्या कांग्रेस और वामपंथी दल महज छह सीटें पाकर संतुष्ट रह पाएंगे।

राजद और जदयू ने जिस तरह बिहार की लोकसभा सीटों को आपस में बांट लिया इसे कांग्रेस पर दबाव बनाने की रणनीति के तौर पर देखा जा रहा है। दरअसल विपक्षी गठबंधन की बैठक में बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के लिए कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के नाम का प्रस्ताव रख दिया। उनके प्रस्ताव का अरविन्द केजरीवाल ने समर्थन कर दिया। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे दलित समाज से आते हैं इसलिए कोई भी नेता उनके इस प्रस्ताव का विरोध करने का साहस नहीं जुटा सका। लेकिन इस प्रस्ताव पर कोई सहमति भी नहीं बन सकी। फिर भी उनके इस दांव से गठबंधन के तमाम नेता चारों खाने चित हो गए। ममता बनर्जी के इस प्रस्ताव ने राहुल गांधी के प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे हुए देखने के सोनिया गांधी के सपने को ही नहीं तोड़ा बल्कि नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव को भी गहरी चोट दे दी।

पटना में पहली बैठक करवा कर विपक्षी गठबंधन की आधारशिला रखने वाले नीतीश कुमार को उम्मीद थी कि उनको विपक्षी गठबंधन की तरफ से प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार या गठबंधन का संयोजक चुन लिया जाएगा, पटना के बाद कई बैठकें हो चुकी हैं लेकिन अभी तक गठबंधन का संयोजक चुनना तो दूर उनके नाम पर गंभीर चर्चा तक नहीं हुई है। लालू प्रसाद यादव को भी उम्मीद थी कि गठबंधन का नेता बन जाने के बाद नीतीश कुमार राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय हो जाएंगे और बिहार के मुख्यमंत्री की कुर्सी उनके पुत्र तेजस्वी यादव को स्वभाविक तौर पर मिल जाएगी। लेकिन ममता बनर्जी और अरविन्द केजरीवाल ने उनकी सारी योजना पर पानी फेर दिया। इसके अलावा ऐसा नहीं है कि नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव के बीच रिश्ते बहुत अच्छे हैं। खबरें तो यहां तक आ रही हैं कि लालू प्रसाद यादव की तरफ से जदयू में सेंधमारी की कोशिशें की जा रही है।

राजनैतिक और वैचारिक तौर पर भाजपा और संघ के धुर विरोधी वामपंथी दल भी अब इस विपक्षी गठबंधन में सहज महसूस नहीं कर रहे हैं। सबसे बड़े वामपंथी दल मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नेताओं ने तो सीधे तौर पर कांग्रेस पर हमला बोलना शुरू कर दिया है। वामपंथी दलों का सबसे ज्यादा प्रभाव पश्चिम बंगाल और केरल में है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी किसी भी कीमत पर माकपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ने को तैयार नहीं है इसके वे कई बार साफ संकेत दे चुकी हैं इसलिए पश्चिम बंगाल में माकपा की गठबंधन में बने रहने की संभावना काफी कम हो गई है। इसके अलावा केरल में इस समय माकपा के नेतृत्व वाले वाममोर्चा की सरकार है। यहां के मुख्यमंत्री पिनरई विजयन और केरल माकपा के राज्य सचिव एमवी गोविन्दन लगातार कांग्रेस पर हमलावर हैं। वे नहीं चाहते कि कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी केरल के वायनाड से दोबारा लोकसभा का चुनाव लड़ें। उनका कहना है कि कांग्रेस को भाजपा के प्रभाव वाले क्षेत्रों में मजबूती से चुनाव लड़ना चाहिये, वायनाड के सांसद को राज्यों की प्रतिद्वंद्विता में नहीं पड़ना चाहिए।

दरअसल लोकसभा चुनाव 2019 में राहुल गांधी केरल की वायनाड सीट से चुनाव लड़े थे। मुस्लिम लीग से उनका गठबंधन था। इसका नतीजा यह हुआ कि केरल की कुल 20 लोकसभा सीटों में से 19 पर कांग्रेस के नेतृत्व वाला गठबंधन जीत गया था और वामदलों को भारी नुकसान उठाना पड़ा था। केरल की राजनीति में पकड़ मजबूत करने को कांग्रेस के नेता भी माकपा पर हमलावर हैं। कांग्रेस के संगठन महासचिव केसी वेणुगोपाल ने केरल की पुलिस और माकपा कार्यकर्ताओं पर कांग्रेस कार्यकर्ताओं का उत्पीड़न करने और उनकी हत्या करने के आरोप लगाए हैं। इसके जवाब में माकपा की तेजतर्रार नेता वृंदा करात ने कांग्रेस पर भाजपा और संघ से मिलीभगत कर केरल षड्यंत्र रचने के गंभीर आरोप लगाए है।

विपक्षी दलों के नेता एक-दूसरे के खिलाफ कोई गुपचुप पैंतरेबाजी नहीं कर रहे हैं बल्कि वे खुलेतौर पर एक-दूसरे के खिलाफ मीडिया में बयान दे रहे हैं। हाल ही में हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की उपेक्षा से आहत उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और सपा मुखिया अखिलेश यादव ने तो अपनी चुनावी सभाओं में कांग्रेस को धोखेबाज पार्टी बताते हुए मतदाताओं से अपील की थी कि वे कांग्रेस को वोट न दें।

दरअसल, कर्नाटक और तेलंगाना के विधानसभा चुनावों और पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनावों में मुस्लिम मतदाताओं ने जिस तरह जनता दल सेक्यूलर, बीआरएस और टीएमसी का साथ छोड़ कर कांग्रेस का दामन थामा है, उससे तमाम क्षेत्रीय दलों की नींद हराम हो गई है। वे भलीभांति जानते हैं कि अगर मुस्लिम मतदाता कांग्रेस के पाले में चले गए तो उनका राजनैतिक अस्तित्व खत्म हो जाएगा। इधर कांग्रेस के नेताओं को भी पता है कि अपनी राजनैतिक हैसियत दोबारा हासिल करने के लिए उन्हें मुस्लिम मतदाताओं को अपने खेमे में लाना ही होगा और इसके लिए वे पूरी शिद्दत से जुटे हुए भी हैं। इसीलिए इंडी गठबंधन के नेता भाजपा के खिलाफ रणनीति बनाने से ज्यादा एक दूसरे को शह-मात देने के खेल में उलझे हुए हैं।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)