Friday, November 22"खबर जो असर करे"

पूर्वोत्तर में कांग्रेस के ‘पराई’ होने के निहितार्थ

– डॉ. रमेश ठाकुर

सियासत अपने रंग-ढंग बदलती रहती है जिसकी पटकथा समय लिखता है, जो समय के साथ नहीं बदलता, समय उसे बदल देता है। समय की गति को समझने में कांग्रेस शायद गच्चा खा गई। पूर्वोत्तर से कांग्रेस का तकरीबन बोरिया-बिस्तर बंध चुका है। एक जमाना था, जब पूर्वोत्तर राज्यों में मुल्क के सबसे उम्रदराज सियासी दल ‘कांग्रेस’ का बोलबाला होता था। कांग्रेस के मुकाबले अन्य दल वहां बिल्कुल भी नहीं टिकते थे। चुनावी मौसम में सियासी लहर सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस की ही बहती थी। फिर, चुनाव चाहे पंचायती हो, या लोकसभा का, सभी में पार्टी की विजयी सुनिश्चित हुआ करती थी। लेकिन अब सियासी परिदृश्य पहले के मुकाबले एकदम जुदा है। अवाम ने पुरानी पटकथाओं को नकार दिया है। कांग्रेस के लिए वहां स्थिति अब ऐसी है कि सूफड़ा ही साफ हो गया है।

हाल ही में मिजोरम विधानसभा चुनाव का रिजल्ट आया, उसमें मात्र सिंगल सीट कांग्रेस को मिल पाई। पार्टी की इतनी बुरी हार, ऐसी दुगर्ति होगी जिसकी कल्पना भी शायद कांग्रसियों ने सपने में कभी नहीं की होगी। उन्हें पटकनी ऐसे दल दे रहे हैं, जो कभी उनके सहयोगी होते थे, या फिर कांग्रेस के गर्भ से ही निकले हैं। कांग्रेस का मरना इसी बात का तो सबसे ज्यादा है कि उनके सिखाए राजनीतिक ककहरा वाले दल उन्हें खदेड़कर सरकार बना रहे हैं। कुल मिलाकर अब हालात कांग्रेस के लिए वहां ऐसे बन चुके हैं जिससे दोबारा उभरना आसान नहीं होगा। उनका जनाधार और उनके खांटी कार्यकर्ता अब अपना रास्ता बदल चुके हैं।

पूर्वोत्तर में कांग्रेस की ऐसी दुगर्ति क्यों हुई? इस पर समीक्षा या आकलन करने की ज्यादा आवश्यकता इसलिए नहीं है, क्योंकि कांग्रेस के बेदखली के कारण कुछ सामने दिखाई देते हैं। मोटे तौर पर कुछ कारण ऐसे हैं जैसे, स्थानीय नेताओं को इग्नोर करना, सभी फैसले दिल्ली में बैठे शीर्ष नेताओं द्वारा लेना, टिकट का वितरण सिफारिशों के जरिए होना, प्रदेश स्तरीय जमीनी मुद्दों को नकारना, वहां के नेताओं-कार्यकर्ताओं का अपमान-तिरस्कार करना और दिल्ली बुलाकर खुलेआम लज्जित करने वाले कारण प्रमुख हैं।

यही वजह है कि 10 जनपद और पूर्वोत्तर राज्यों की दूरी धीरे-धीरे बढ़ती गई। तभी, पूर्वोत्तर राज्यों के नेताओं ने अपमान का कड़वा घूंट पीकर विगत वर्षों से खुद से निर्णय लिया कि अब वो दिल्ली पर निर्भर नहीं रहेंगे, अपना रास्ता खुद तय करेंगे। मिजोरम में इस दफे जेडपीएम को बहुमत मिला है, उसके ज्यातर नेता कभी दिल्ली का मुंह ताका करते थे। पर, जब से उन्होंने दिल्ली आना बंद किया और अपने यहां छोटे-मोटे एकाध दलों के साथ मिलकर संगठन बनाया, जिसका परिणाम आज सभी के सामने है। मिजोरम में बिना किसी के सहयोग से जेडपीएम अपनी सरकार बना रही है।

बहरहाल, सेवन सिस्टर्स कहे जाने वाले पूर्वोत्तरी क्षेत्र नगालैंड, मणिपुर, मेघालय, त्रिपुरा, अरुणाचल प्रदेश, असम और मिजोरम में कांग्रेस एक साथ नहीं पिछड़ी, बल्कि धीरे-धीरे खत्म हुई। 2014 में केंद्र से जैसे कांग्रेस की छुट्टी हुई। तभी से उपरोक्त राज्यों की तस्वीर बदलनी शुरू हुई। बदली तस्वीर कांग्रेस के बूढ़े नेताओं के इर्द-गिर्द घूमती भी रही। बावजूद इसके उन्होंने रोकने की जरा भी कोशिशें नहीं की? 2018 में मिजोरम विधानसभा के वक्त वहां से एक स्थानीय कांग्रेसी प्रतिनिधिमंडल प्रदेश के मौजूदा हालात पर सियासी विचार-विमर्श करने दिल्ली पहुंचा था।

वो सोनिया गांधी, राहुल गांधी या फिर प्रियंका गांधी में किसी एक से मिलने के इच्छुक थे। लेकिन तीनों में किसी ने मिलने तक का समय नहीं दिया। वो प्रतिनिधिमंडल पांच दिनों तक दिल्ली में डेरा डाले रहा, उनसे मिलना गांधी परिवार ने उचित नहीं समझा। बल्कि उनको ये संदेश पहुंचाया गया कि प्रदेश के मुद्दों पर विचार करना और निर्णय लेना उनका काम है तुम वापस जाओ। सोचने वाली बात है। जब, लोकल लीडरशिप के साथ ऐसा व्यवहार किया जाएगा तो पार्टी का सूफड़ा साफ होना तय है। कमोबेश, हो भी कांग्रेस के साथ वैसा ही रहा। बल्कि, उससे और ज्यादा होता दिख रहा है। पूर्वोत्तर राज्यों में कांग्रेस पूर्व विपक्ष की भूमिका में भी नहीं रही। स्थिति अगर ऐसी ही बनी रही तो वह दिन दूर नहीं, जब कांग्रेस की चर्चा वहां सिर्फ कागजों में ही हुआ करेगी।

दरअसल, कांग्रेस अपने भीतर से एक बड़ी गलतफहमी नहीं निकाल पा रही। वो गलतफहमी है उनका मतदाताओं को अपनी जागीर समझना? कांग्रेस को लगता है कि वहां के वोटर तो उनके स्थाई हैं, कभी पाला नहीं बदलेंगे। पूर्वोत्तर के अलावा मैदानी और पहाड़ी राज्यों में भी ऐसी ही भूल कर रही है। पंजाब में चन्नी-सिद्धू का मसला अगर समय रहते सुलझा होता तो वहां भी ऐसी नौबत नहीं आई होती? हरियाणा, उत्तराखंड और ताजा तरीन राजस्थान में भी यही हुआ। राजस्थान में पायलट-गहलोत के बीच शुरू से आखिर तक बरकरार रहा अंतर्विरोध, जिसका खामियाजा उन्होंने जीता-जिताया प्रदेश हरवा डाला। फिलहाल, पूर्वोत्तर में चुनावों में लगातार मिल रही हार ने कांग्रेसी कार्यकर्ताओं और नेताओं में मायूसी छा दी।

यही कारण है कि कांग्रेस के नेता और कार्यकर्ता जनता से भी दूर होते गए जिसका नुकसान कांग्रेस को चुनाव दर चुनाव उठाना पड़ रहा है। मिजोरम के रिजल्ट ने कांग्रेस के लिए भविष्य की तस्वीर प्रस्तुत कर दी है कि पूर्वोत्तर में कांग्रेस की तानाशाही सियासी रणनीति अब नहीं चलने वाली, नए सिरे से रणनीति बनानी होगी। वरना, 2024 में भी ऐसी ही तस्वीर देखने को मिलेगी। कांग्रेस के न रहने से जितना स्पेस खाली होएगा, उसका बिना देर किए फायदा भाजपा उठाएगी।

कांग्रेस के लिए पूर्वोत्तर क्षेत्र किसी वंडरलैंड से कम नहीं रहा, क्योंकि वहां क्षेत्रीय जनता के अलावा प्राकृतिक आशीर्वाद भी उन्हें प्राप्त हुआ। पर, सियासी घमंड में चूर कांग्रेस दोनों को नहीं पचा पाई, मतदाताओं को अपनी स्थाई जमीन समझने की भूल करते रहे। एक वक्त था, जब जनता के प्रति भी कांग्रेस को लेकर दीवानगी थी कि कांग्रेस के सिवाए उन्हें कोई दूसरा दल नहीं भाता था। जनता की कई आकांक्षाएं और अपेक्षा थी जिसे पूरा करने में कांग्रेस असफल रही। मणिपुर में उपजी जातीय हिंसा भी पूर्व की घटनाओं की देन हैं। कई ऐसे पुराने मसले हैं जो जिन्न बनकर बोतल से बाहर एक-एक करके निकल रहे हैं। पूर्वोत्तर में पड़ोसी देश म्यांमार और बांग्लादेश से मादक पदार्थों की सप्लाई का विरोध सेवन सिस्टर्स राज्य बहुत पहले से करते आए हैं, जिस पर कांग्रेस की केंद्र सरकार ने कभी गौर नहीं किया।

राज्य सरकारों ने अपने बूते कुछ करना भी चाहा, तो उन्हें रोका गया। इन्हीं सभी बातों का गुस्सा जनता अब चुनावों में कांग्रेस से ले रही है। सेवन सिस्टर्स राज्यों की चुनावी रिजल्ट वाली तस्वीर कांग्रेस को बेहद परेशान किए हुए, अगर सिलसिला यूं ही रहा तो 2024 में भी कांग्रेस खाली हाथ रहेगी। पूर्वोत्तर के लिए कांग्रेस को नई रणनीति बनाने की दरकार है। साथ ही स्थानीय नेताओं को तवज्जो देकर वहां से ताल्लुक रखने वाले तमाम निर्णयों को उन्हीं पर छोड़ना होगा। पर, शायद ही हो, कांग्रेस इतना नीचे झुक पाए।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)