– मुकुंद
संयुक्त राष्ट्र की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, भारत में जल संकट लगातार गहरा रहा है। कई राज्य भू-जल की कमी के चरम बिंदु को पार कर चुके हैं। रिपोर्ट में ऐसा अनुमान लगाया गया है कि पूरे उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में 2025 तक गंभीर रूप से भू-जल संकट गहरा सकता है। यह काफी हद तक सच है। जलवायु परिवर्तन के दौर में मानसून और उस पर निर्भर जल संसाधनों पर खराब असर पड़ा है। इसका बड़ा उदाहरण हैदराबाद में 30 झीलों का सूख जाना है। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के अनुसार अगस्त में हैदराबाद की 185 झीलों में से 30 के सूखने की सूचना मिली थी। कुछ झीलों पर अतिक्रमण किया जा चुका है। शेखपेट, कुकटपल्ली, मेडचल-मल्काजगिरी और कुतुबुल्लापुर की झीलें सूखे से सबसे ज्यादा प्रभावित हुई हैं, लेकिन यह संकट इससे भी कहीं ज्यादा गंभीर है।
देश के कई हिस्सों को कई बड़ी नदियों के सूखने के साथ जल संकट का सामना करना पड़ता है। भारत में दुनिया की आबादी का 18 प्रतिशत हिस्सा है, जबकि देश के पास सिर्फ चार प्रतिशत जल संसाधन हैं। यह आंकड़ा भारत को दुनिया में सबसे ज्यादा पानी की कमी वाले देशों में से एक बनाता है। यही वजह है कि पिछले कुछ साल से गर्मी आते ही पानी भारत में सोने की तरह कीमती चीज बनती जा रही है। नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार बड़ी संख्या में लोग जल संकट का सामना करते हैं। पानी की जरूरत के लिए भारत की अनियमित मानसून पर निर्भरता इस चुनौती को और बढ़ा रही है। इससे लाखों लोगों का जीवन और आजीविका खतरे में हैं।
फिलहाल 60 करोड़ भारतीयों पर गंभीर जल संकट मंडरा रहा है और पानी की कमी और उस तक पहुंचने में आने वाली मुश्किलों की वजह से हर साल लगभग दो लाख लोगों की मौत हो जाती है। 2030 तक देश की पानी की मांग, उपलब्ध आपूर्ति से दोगुनी होने का अनुमान है। इससे लाखों लोगों के लिए पानी की गंभीर कमी और देश के सकल घरेलू उत्पाद में करीब छह प्रतिशत का नुकसान होने का अनुमान है। नीति आयोग की रिपोर्ट में कहा गया है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से पानी की चुनौतियां और बढ़ी हैं। लगातार हो रहे जलवायु परिवर्तन ने पानी के स्रोतों में बाढ़ या सूखे जैसी स्थिति पैदा कर दी है।
नीति आयोग की भू-जल संरक्षण समिति के सदस्य उमाशंकर पाण्डेय का कहना है कि स्थिति तो सचमुच गंभीर है। मगर हार मानने से इसका हल नहीं होगा। इसके लिए सरकार के साथ सामुदायिक और स्वैच्छिक प्रयास बहुत जरूरी हैं। जल संरक्षण भी जरूरी है। साथ में पानी की बरबादी को भी रोकना होगा। वह कहते हैं कि बांदा जिले में उनके गांव जखनी में एक समय पानी की घोर कमी थी। हाल यह था कि डेढ़ सौ फीट पर भी पानी नहीं आता था। इसके लिए उन्होंने करीब साढ़े तीन दशक तक ‘खेत पर मेड़ और मेड़ पर पेड़’ अभियान चलाया। पुरखों की इस विधि से गांव में शुरू किए गए सामुदायिक अभियान ने सूखे को मात दे दिया।
पद्म श्री से सम्मानित उमाशंकर पाण्डेय का कहना है कि इस विधि की वजह से कुछ साल में ही बरसात का पानी खेतों में ठहरने लगा। खेतों में पानी की ठहराव होने की वजह से मिट्टी के क्षारीय स्वभाव में भी बदलाव आया। मिट्टी की उर्वरा शक्ति बेहतर हुई। दो साल की बारिश में मेड़ पर लगे अरहर और करौंदा जैसे छोटे पेड़ बड़े होकर मेड़ को मजबूती प्रदान कर फल भी देने लगे। 2018 में बांदा के तत्कालीन जिलाधिकारी डॉ. हीरालाल ने तो जखनी मॉडल को बुंदेलखंड के जलसंकट का स्थाई समाधान मानते हुए इसे प्रशासनिक प्रोत्साहन दिया। उन्होंने जखनी मॉडल को जिले की सभी 470 ग्राम पंचायतों में लागू किया। इसकी भनक नीति आयोग को लगी तो उसकी टीम ने इस मॉडल का निरीक्षण किया। टीम ने यह माना कि बुंदेलखंड जैसे सूखाग्रस्त इलाकों के लिए किसान समुदाय ‘खेत पर मेड़ और मेड़ पर पेड़’ के सूत्र का पालन कर जलसंकट से उबारने में निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं।