Friday, September 20"खबर जो असर करे"

मताधिकार में सकारात्मक सोच जरूरी

– डॉ. राजेन्द्र प्रसाद शर्मा

तेलंगाना में मतदान की घड़ी है…। सुबह विधानसभा चुनाव के लिए वोटिंग शुरू हो जाएगी। पांच साल में एक बार मिलने वाले अवसर को नकारात्मक सोच या गैरजिम्मेदारी से खो देना किसी भी हालात में उचित नहीं माना जा सकता। लोकतंत्र के महायज्ञ में प्रत्येक मतदाता को अपने मताधिकार का उपयोग कर मतदान करके अपनी आहुति देने का अवसर मिलता है। ऐसे में मतदान का बहिष्कार या फिर लापरवाही के कारण मतदान नहीं करने को किसी अक्षम्य अपराध से कम नहीं कहा जा सकता है। वर्तमान परिदृश्य में नोटा प्रयोग भी मंथन का विषय होना चाहिए। नोटा के प्रावधान को लेकर पक्ष विपक्ष में अनेक तर्क दिए जा सकते हैं पर समय आ गया है कि उस पर बड़ी बहस हो और उसको अधिक प्रभावी या कारगर बनाने के प्रावधान किए जाएं। सर्वोच्च न्यायालय की मतदान को लेकर की गई टिप्पणी भी इस मायने में महत्वपूर्ण हो जाती है कि यदि हम मताधिकार का प्रयोग नहीं करते हैं तो फिर सरकार के खिलाफ किसी तरह की ग्रीवेंसज करना उचित नहीं ठहराया जा सकता।

कमोबेश यह सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी की भावना रही है और इससे साफ- साफ संदेश हो जाता है कि सजग व जिम्मेदार नागरिक के रूप में प्रत्येक मतदाता का दायित्व हो जाता है कि वह अपने मताधिकार का प्रयोग करे। अब तो निर्वाचन आयोग ने मतदान को सुविधाजनक भी बना दिया है। बुजुर्ग व दिव्यांग मतदाताओं को घर बैठे मतदान का अवसर प्रदान कर दिया है। वहीं मतदाताओं के लिए जागरुकता अभियान से लेकर निष्पक्ष चुनाव के लिए कारगर कदम उठाये जाने लगे हैं।

भले ही सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद ईवीएम में नोटा यानी नन ऑफ द अवोव का प्रावधान कर दिया गया हो पर एक जागरूक व जिम्मेदार मतदाता के लिए नोटा के प्रयोग को समझदारी भरा निर्णय नहीं माना जा सकता। कारण साफ है नोटा का बटन दबाकर अपनी भावना तो व्यक्त कर सकते हैं पर उसका इस मायने में कोई अर्थ नहीं रहता कि किसी की जीत हार में उसका खास असर नहीं पड़ता। राजस्थान के ही 2013 और 2018 के विधानसभा चुनाव का विश्लेषण किया जाए तो साफ हो जाता है कि 2013 के विधानसभा चुनाव में 4 करोड़ 8 लाख से अधिक मतदाताओं में से 5 लाख 89 हजार से कुछ अधिक यानी कि केवल 1.92 प्रतिशत मतदाताओं ने नोटा का प्रयोग किया। इसी तरह से 2018 के विधानसभा चुनाव का विश्लेषण किया जाए तो 4 करोड़ 77 लाख से कुछ अधिक मतदाताओं में से 4 लाख 67 हजार से कुछ अधिक यानी कि 1.3 प्रतिशत मतदाताओं ने नोटा का बटन दबाकर विरोध दर्शाया।

आपका नोटा का बटन जीत-हार के अंतर को तो कम कर सकता है पर नोटा के प्रयोग के स्थान पर उपलब्ध विकल्पों में से ही किसी एक को चुनना ज्यादा बेहतर माना जा सकता है। हालांकि एक समय था जब कई बूथों पर विरोध स्वरूप मतदान का बहिष्कार करने का निर्णय कर लिया जाता था या फिर लोगों द्वारा उपलब्ध उम्मीदवारों में किसी को भी मत देने योग्य नहीं समझने के कारण विरोध का मत यानी कि नोटा के प्रयोग की मांग की जाती रही। नोटा का परिणाम प्रभावी तरीके से राइट टू रिजेक्ट होता तो अधिक कारगर होता।

तस्वीर का दूसरा पक्ष यह भी है कि अमेरिका सहित दुनिया के कई देशों में नोटा को हटाया जा चुका है। यूं कहे कि कई देशों में नोटा के प्रावधानों को कारगर नहीं पाने के कारण हटा दिया गया है। अमेरिका की ही बात करें तो वहां नोटा का प्रावधान रहा है पर 2000 आते-आते उसे हटा दिया गया। इसी तरह से रूस ने 2006 और पाकिस्तान में 2013 में नोटा प्रावधान को हटाया जा चुका है। देश के प्रबुद्ध नागरिकों, वुद्धिजीवियों, राजनीतिक विश्लेषकों, कानूनविदों को नोटा को लेकर गंभीर बहस छेड़नी होगी जिससे नोटा को वास्तव में चुनाव में हथियार के रूप में उपयोग किया जा सके। आज की तारीख में बात करें तो नोटा केवल और केवल आपके विरोध को दर्ज कराने तक ही सीमित माना जा सकता है।

एक दूसरी बात और जिस पर गंभीर चिंतन की आवश्यकता है। आजादी के 75 साल बाद और दुनिया की सबसे बेहतरीन चुनाव व्यवस्था के बावजूद मतदान प्रतिशत का 90 से 100 प्रतिशत के आंकड़े को नहीं छूना चिंता का विषय है। आज हालात बदल चुके हैं। कोई भी किसी को मतदान के अधिकार से जोर जबरदस्ती या अन्य कारण से रोक नहीं सकता। भारतीय चुनाव आयोग की निष्पक्ष चुनाव व्यवस्था को सारी दुनिया द्वारा सराहा जाता है और लोहा मानते हैं। इस सबके बावजूद मतदान का प्रतिशत कम होना गंभीर है। ऐसे में मतदान का बहिष्कार या मतदान नहीं करना जिम्मेदार मतदाता का काम नहीं हो सकता। पांच साल में एक बार आने वाले इस अवसर का उपयोग सकारात्मक सोच व उपलब्ध विकल्पों के आधार पर ही बेहतर तरीके से किया जा सकता है। इसलिए मतदान को अपना कर्तव्य समझ कर घर से बाहर निकलें और मताधिकार का उपयोग अवश्य करें।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)