– हृदयनारायण दीक्षित
वैदिक साहित्य प्रकृति के प्रति आदर से भरा पूरा है। इस आस्था का तर्क संगत विज्ञान भी है। जर्मनी के डॉ. कुलरिच बर्क वैदिक अग्निहोत्र विज्ञान को कई देशों तक पहुंचा रहे हैं। डॉ. बर्क बर्लिन विश्वविद्यालय में गणित के प्राध्यापक रहे हैं और लगभग चार दशक से वैदिक विज्ञान में सक्रिय हैं। डॉ. बर्क ने ‘व्हाट इज डन एंड व्हाट कैन बी डन विद अग्निहोत्र’ शीर्षक से तीन सौ पृष्ठों का शोधपत्र बनाया। अग्निहोत्र विज्ञान पर उनके 20 से ज्यादा शोधपत्र विभिन्न देशों में प्रकाशित हुए हैं। डॉ. आरके पाठक बताते हैं कि, ”सूर्योदय के समय सम ऊर्जा, विद्युत् ऊर्जा उत्सर्जित होकर पृथ्वी को ऊर्जावान बनाती है। अग्निहोत्र से इसकी सकारात्मकता में वृद्धि होती है। इसी तरह सूर्यास्त के समय ऊर्जा का उत्सर्जन वापस वातावरण में मिलता है। उनके मुताबिक कई देशों में भारत के इस प्राचीन विज्ञान को अपनाया जा रहा है। डॉ. उलरिच बर्क 40 वर्ष से अधिकांश देशों में भारत के प्राचीन अग्निहोत्र विज्ञान का प्रचार कर चुके हैं।
भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के बागवानी संस्थान के सेवानिवृत्त निदेशक डॉ. आरके पाठक भी इस अभियान से जुड़े हैं। उत्तर प्रदेश, राजस्थान, केरल और गुजरात के किसान भी इस अभियान का हिस्सा हैं। अग्निहोत्र यज्ञ कर्म का हिस्सा है। इससे प्रदूषण मुक्ति होती है। ऋग्वेद अग्नि स्तुति से ही प्रारम्भ होता है। कहते हैं, ”हम अग्नि की स्तुति करते हैं। अग्नि यज्ञ में पुरोहित हैं। यज्ञकर्ता को रत्न देने वाले हैं।” (1.11) भारतीय परम्परा में यज्ञ असाधारण कर्मकाण्ड रहा है। वैदिक ज्ञान के तमाम सूत्र आधुनिक विज्ञान से भी सत्य हैं। ऋग्वेद में ही कहते हैं कि, ”यह सृष्टि यज्ञमय है। पूर्व काल में पूर्वजों ने तमाम यज्ञ किए थे।” यज्ञ विधान का लगातार विकास हुआ है। यज्ञ में देव स्तुतियां हैं। यज्ञ का मूल तत्व स्वाहा है। स्वाहा का अर्थ समर्पण है। समर्पण कई तरह का है। हव्य समर्पण है। भाव समर्पण है। ज्ञान समर्पण है। अहंकार समर्पण है। गीता में यज्ञ को व्यापक अर्थ में समझाया गया है। श्रीकृष्ण कहते हैं, ”कुछ योगी देवताओं के लिए यज्ञ करते हैं जबकि अन्य यज्ञकर्ता ब्रह्म की अग्नि में स्वयं को ही अर्पित कर देते हैं।”
यज्ञ कई तरह के हैं। कुछ लोग अपनी भौतिक सम्पत्ति व योगाभ्यास से अर्जित शक्ति को यज्ञ में अर्पित करते हैं। उपनिषदों के समय सभी कर्मों को बंधनकारी माना जाता था। कर्मबंधन में बंधे व्यक्ति का पुनर्जन्म होता है। केवल यज्ञ ही बंधन में नहीं डालता। श्रीकृष्ण अर्जुन को बताते हैं, ”प्राचीन काल में प्रजापति ने यज्ञ से प्राणी उत्पन्न किए थे और कहा था कि, ”यज्ञ तुम्हारी सभी इच्छाओं को पूरा करेगा।” श्रीकृष्ण कहते हैं, ”तुम यज्ञ के द्वारा देवताओं का पोषण करो। देवता तुम्हारा पोषण करेंगे।” यहाँ देवताओं और मनुष्य के बीच सामान्य अनुबंध दिखाई पड़ता है। अनुबंध टूटता है। प्रकृति की शक्तियां कोप में होती हैं। तूफान आते हैं। अतिवृष्टि और अनावृष्टि होती है। भूमण्डल का ताप बढ़ता है। मनुष्य प्रकृति की शक्तियों के सम्मुख स्वाहा समर्पण करता है। प्रकृति की शक्तियां पोषण करती हैं। यजुर्वेद के एक मन्त्र में यज्ञ से प्रार्थना है, ”हे यज्ञ जहां तक द्यावा, पृथ्वी, समुद्र और दिशाएं हैं, वहां तक हम सभी प्राणी आपसे ऊर्जा पाते हैं।” गीता (4.31) में श्रीकृष्ण कहते हैं, ”जो यज्ञ के बाद शेष बचे अन्न खाते हैं वह ब्रह्म को प्राप्त करते हैं।” गीता का यज्ञ चक्र ध्यान देने योग्य है। श्रीकृष्ण कहते हैं, ”अन्न से प्राणी होते हैं। अन्न वर्षा से होता है और वर्षा यज्ञ से होती है। यज्ञ सत्कर्मों से उत्पन्न होता है।” यहाँ यज्ञ को सत्कर्म कहा गया है।
‘यज्ञ-चक्र’ बहुत प्रेमपूर्ण कल्पना है। श्री कृष्ण बताते हैं, ‘अन्न से प्राणी होते हैं। वर्षा से अन्न उत्पन्न होता है। वर्षा यज्ञ से होती है और यज्ञ कर्म से उत्पन्न होता है।’ (3.14) मनुस्मृति (3.76) में भी यही स्थापना है ‘यज्ञ में दी गई आहुति सूर्य को मिलती है। सूर्य से पर्जन्य – मेघ आते हैं। वर्षा से अन्न पैदा होता है, अन्न से प्रजाए उत्पन्न होती हैं।’ तैत्तिरीय उपनिषद् में कहते हैं ‘परमतत्व से आकाश का जन्म हुआ। फिर वायु फिर अग्नि, जल और पृथ्वी की उत्पत्ति हुई। पृथ्वी से औषधियां और औषधियों से अन्न तथा अन्न से पुरुष उत्पन्न हुआ।’ यहां सृष्टि के विकास क्रम का वर्णन है। श्रीकृष्ण अन्न से प्रारम्भ करते हैं। यहां प्रत्यक्ष भौतिकवाद है। ब्रह्मवादी इसी चक्र को परम तत्व से प्रारम्भ करते हैं।
यज्ञचक्र सतत प्रवाही है। श्रीकृष्ण कहते हैं ‘जो इस यज्ञचक्र के संचालन में सहायक नहीं होता, वह इन्द्रिय सुखों में संलग्न दुष्ट स्वभाव वाला है और उसका जीवन व्यर्थ है।’ (3.16) यहां यज्ञ चक्र विरोधी को दुष्ट कहा गया। गीता का यज्ञ एक व्यापक अवधारणा है। यज्ञ का एक अंग ‘दक्षिणा’ है। दक्षिणा कर्मकुशलता का पारिश्रमिक है। दक्ष का अर्थ कुशलता होता है। ऋग्वेद (10.107.2) में भी दक्षिणा को अनिवार्य बताया गया है। वैदिक काल में यज्ञ का अनुभूत दर्शन था। अनुभूत दर्शन से यज्ञ संस्था का विकास हुआ। विकास के क्रम में कर्मकाण्ड की कई विधियां जुड़ी। वाजपेय यज्ञ में रथ में घोड़े जोते जाते थे, दौड़ होती थी, यजमान विजेता बनता था। राजसूय यज्ञ में वरुण या इन्द्र का अभिषेक होता था।
तैत्तिरीय आरण्यक (2.10) के अनुसार अग्नि में ह्विष्य से देवयज्ञ, पितरों को अन्न जल तर्पण से पितृयज्ञ, पशुपक्षियों को भोजन देने से भूतयज्ञ, विद्वानों अतिथियों को भोजन देने से मनुष्ययज्ञ पूर्ण होता है लेकिन स्वाध्याय से ब्रह्मयज्ञ पूरा होता है -यत् स्वाध्यायम धीर्यात, तद् ब्रह्मयज्ञ सन्तिष्ठते। स्वाध्याय का अर्थ कोरा अध्ययन ही नहीं है। कुछ लोग इसका अर्थ अच्छा साहित्य पढ़ना लेते है, तो अनेक विद्वान ऋग्वेद आदि के अध्ययन को स्वाध्याय बताते है। वस्तुतः यहां स्व-अध्ययन पर जोर है। जो पिण्ड में हैं, वही ब्रह्माण्ड में है। ब्रह्माण्ड विराट है, पिण्ड हम स्वयं है, हम सदा अपने निकट रहते हैं लेकिन बहुधा दूर भी होते हैं जब घर में होते है, तब गृहस्थ और जब स्व में स्थित होते है तब स्वस्थ। स्वाध्याय इसी ‘स्व’ का अध्ययन है। अपना अध्ययन पूरा तो ब्रह्म का अध्ययन का भी पूरा हो गया।
यज्ञ का दर्शन बताते हुए श्रीकृष्ण (4.24) कहते हैं ‘ब्रह्म ही ब्रह्म को आहुति देते हैं। ब्रह्म ही संपूर्णता में अग्नि हैं। ब्रह्म यज्ञकर्ता हैं, वही मंत्र, वही आहुति।’ संपूर्णता ही संपूर्णता को संपूर्णता की हवि देती है। गीता का ‘ज्ञान यज्ञ’ श्रेष्ठ है। श्रीकृष्ण कहते हैं ‘द्वव्य आदि पदार्थो द्वारा किए जाने यज्ञों की अपेक्षा ज्ञान यज्ञ श्रेष्ठ है – श्रेयान्द्रव्यमयाद्य ज्ञान यज्ञः। (4.32) यहां ज्ञान भौतिक जगत् का अध्ययन है, भौतिक जगत के परे अज्ञात जगत् की भी अनुभूति है। इसी ज्ञान के प्रकाश में स्वयं का अध्ययन भी इसमें सम्मिलित है। ज्ञान सर्वोपरि है। श्रीकृष्ण कहते हैं ‘सभी कर्म निरपवाद रूप में ज्ञान में जाकर समाप्त हो जाते हैं।’ (वही) ऋग्वैदिक काल से प्रख्यात यज्ञसंस्था कई बार आलोचना का भी शिकार हुई, तत्ववेत्ताओं ने इसे हर बार व्यापक अर्थों में सुपरिभाषित किया और मूल दर्शन से जोड़ा। गीता यज्ञ दर्शन की विराट झांकी है। यज्ञ प्रतिदिन के कर्म हैं।
(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)