Monday, November 25"खबर जो असर करे"

मध्य प्रदेश में नहीं दिखा चुनावी माहौल

– ऋतुपर्ण दवे

पहले नवरात्रि फिर दशहरा अब धनतेरस, दिवाली, गोवर्धनपूजा, भाई दूज और तुरंत बाद थमता प्रचार। मध्यप्रदेश में इस बार लगभग आधी से ज्यादा सीटों पर विधानसभा चुनाव जैसा कुछ लगा नहीं। बीच में खामोशी को चीरते एकाध प्रचार वाहन में लगे लाउडस्पीकर से प्रत्याशी के समर्थन में रिकॉर्डेड गीत व अपील क्या पता कितना असर डाल पाए? इस बार वाकई में विधानसभा चुनाव बिल्कुल कोलाहल विहीन रहा। नामांकन भरने से लेकर नाम वापसी तक जरूर थोड़ी सक्रियता दिखी लेकिन बाद में यह सक्रियता सिवाय बड़े नगरों के गांव-गांव, डगर-डगर नहीं दिखी। इसका मतलब यह नहीं कि मतदाता खामोश है। हवा का रुख भांपने वाले राजनीतिक पण्डित भी इस बार अलग ही दिखे। बावजूद इसके न तो भाजपा और न ही कांग्रेस यह मानने को तैयार नहीं कि सत्ता के सिंहासन में वह पीछे है। कौन जीतेगा, कौन हारेगा इसे लेकर प्रत्याशी चयन का सर्वे कहां हुआ किसने किया, किससे पूछा गया कुछ नहीं पता। बस पता है तो इतना कि चंद घण्टों बाद ईवीएम की बीप के साथ मत मशीन में दर्ज जाएगा। चुनाव बिना किसी लहर के होते दिख रहे हैं।

इस बार कुछ इस तरह का माहौल शुरू-शुरू में बना कि लगा चुनाव में एन्टी इन्कम्बेन्सी दिखेगी लेकिन त्योहारों के दौरान जिस तरह की शांति और उदासीनता खासकर कांग्रेस में दिखी उससे सत्ता के समीकरण का गणित हल करने वाले भी अब थोड़ा सशंकित हैं। मध्यप्रदेश की 230 विधानसभा सीटों को लेकर अलग-अलग कयास हैं। प्रदेश की राजधानी और भोपाल-नर्मदापुरम संभाग का सियासी पारा मिला जुला सा लग रहा है। यहां 36 सीटें है जिस पर सीधी लड़ाई भाजपा और कांग्रेस के बीच है। इनमें भाजपा 12 तो कांग्रेस 10 विधानसभा में पूरे दमखम से लगी है जबकि 14 सीटों पर बहुत ही संघर्षपूर्ण स्थिति है। ग्वालियर-चंबल क्षेत्र का अपना अलग राजनीतिक रसूख है। यहां विधानसभा की 34 सीटों में 19 पर कांग्रेस तो 6 पर भाजपा और 2 पर बसपा चुनौती देती दिख रही है जबकि बाकी 7 पर कांटे का मुकाबला है। यहां बसपा में बढ़ोत्तरी के साथ सीटें 2018 जैसी आएं तो हैरानी नहीं होगी। इन्दौर संभाग की 37 सीटों पर काफी रोचक स्थिति दिख रही है। यहां 24 सीटों पर फिफ्टी-फिफ्टी वाली स्थिति है तो 8 सीटों पर संघर्षपूर्ण स्थिति और 4 सीटों पर भाजपा-कांग्रेस दोनों को भितरघातियों से डर है। जबकि 1 सीट पर बागी प्रत्याशी कांग्रेस के लिए मुश्किल बना है। उज्जैन संभाग की 29 विधानसभा सीटों पर भी स्थिति काफी कुछ साफ सी दिख रही है। यहां पर भाजपा 16 कांग्रेस 10 और 3 पर कांटे की स्थिति बनी हुई है। इस तरह मालवा-निमाड़, ग्वालियर चंबल, उज्जैन और भोपाल-नर्मदापुरम की 136 सीटों पर ऊंट किस करवट बैठेगा समझ आ रहा है।

इस बार महाकौशल यानी जबलपुर संभाग की 38 सीटों को लेकर भाजपा-कांग्रेस दोनों ही आशान्वित हैं। लेकिन जनता का रुख और बागियों व भितरघातियों का खेला अलग ही कर दिखाने पर आमादा हैं। शहरी क्षेत्रों में कांग्रेस-भाजपा दोनों ने ही उम्मीदें पाल रखीं हैं। यहां कांग्रेस 16 भाजपा 11 और 1 पर निर्दलीय जबकि 10 पर स्थिति अस्पष्ट है। इसी को लेकर तेज गुफ्तगू सुनाई दे रही है। सागर संभाग में 26 विधानसभा सीटें हैं। यहां पर भाजपा 16 कांग्रेस 8 तो सपा-बसपा 1-1 पर चुनौती देती दिख रही है। आप पार्टी भी एक या दो सीटों पर कांग्रेस-भाजपा का समीकरण बिगाड़ सकती है। विन्ध्य अंचल जिसमें रीवा और शहडोल संभाग आते हैं यहां पर विधानसभा की 30 सीटें हैं। जिसमें 22 रीवा संभाग में तो 8 शहडोल संभाग में आती हैं। यदि रीवा पर नजर डालें तो वहां भाजपा 6 कांग्रेस 10 और 1 पर आप मजबूत दिख रही है। जबकि 5 पर कांटे की टक्कर झलक रही है। वहीं शहडोल संभाग में 3 पर कांग्रेस 2 पर भाजपा तो 3 में संघर्षपूर्ण नजारा बना हुआ है।

जहां तक राजनीतिक तापमान की बात है, ठण्ड के मौसम के बावजूद दिन में गर्मी के अहसास के बीच राजनीतिक तपन वैसी नहीं है जैसा अब तक के विधानसभा चुनावों के दौरान दिखा। नेताओं के आरोप-प्रत्यारोप यहां तक कि कुछ सीटों पर निजी छींटाकशी के बयानों के चलते कभी-कभी लगा कि चुनाव हो रहे हैं वरना बड़े और मंझोले शहरों और जिला मुख्यालयों पर स्टार प्रचारकों की रैलियां के सिवाय कुछ नहीं दिखा। चुनाव के दौरान भाजपा के लिए प्रधानमंत्री मोदी, गृह मंत्री अमित शाह, जेपी नड्डा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, स्मृति ईरानी तो कांग्रेस में प्रियंका गांधी, राहुल गांधी, मल्लिकार्जुन खरगे वहीं सपा में अखिलेश यादव बाहर से आए स्टार प्रचारकों में शुमार रहे। प्रदेश से भाजपा के लिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह, ज्योतिरादित्य सिंधिया तो कांग्रेस के लिए पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, विवेक तन्खा सहित कई दिग्गजों ने पसीना बहाया। कांग्रेस का चुनावी संचालन प्रदेश के बाहर आए लोगों द्वारा संभालना जबर्दस्त चर्चाओं में रहा।

यदि भाजपा और कांग्रेस के वायदों को देखें तो लगता है कि नया कुछ भी नहीं है। कई घोषणाएं वहीं रहीं जो नेता काफी पहले से कहते आ रहे हैं। निश्चित रूप से धार्मिक वायदों की झड़ी है। दोनों ही दलों ने प्रदेश से निकलने वाली और प्रदेश की जीवन रेखा कहलाने वाली नर्मदा पर कई वायदे किए लेकिन किसी भी दल को नहीं लगा कि उसी नर्मदा उद्गम जगह वाले संभाग की पहचान भी नर्मदा से हो? तेजी से शहरों व गांवों के बदलते नामों के दौर में भी काश शहडोल संभाग अमरकण्टक संभाग हो जाता और अनूपपुर जिला नर्मदा उद्गम के चलते रेवांचल जिला, शहडोल ऐतिहासिक-पुरातात्विक महत्व के विराट नगर के नाम पर और उमरिया विश्व प्रसिध्द बांधवगढ़ उद्यान के नाम पर बांधवगढ़ जिला होता तो कुछ और ही होता। दोनों ही दलों ने महिला संबल और कल्याण पर भी काफी कहा। ऐसे तमाम लुभावने वायदों के बीच युवाओं को यह जरूर अखर रहा है कि कृषि, किसान-कल्याण, बिजली बिल, तमाम परियोजनाओं, जनजातीय समाज के कल्याण, उत्तम शिक्षा, वरिष्ठ नागरिकों सहित कई मुद्दों पर भाजपा ने 96 पृष्ठों का घोषणा पत्र तो कांग्रेस ने 116 पृष्ठों का वचन पत्र जारी किया। युवाओं की प्रतियोगी परीक्षाओं में उनकी फीस माफी की कांग्रेस ने बात तो की लेकिन नौकरी कब देंगे सही-सही दोनों दल साफ-साफ नहीं बता पाए। पुरानी पेंशन, विधान परिषद पर कांग्रेस भारी दिखी। कांग्रेस ने भाजपा पर कट पेस्ट का आरोप लगाया तो भाजपा ने इसे सिरे से खारिज किया।

अब कुछ भी हो इस चुनाव में और घोषणाओं का वक्त निकल गया है वरना संभव है कि प्रदेश में दोनों ही दलों की ओर से हुई घोषणाओं में काश कुछ और जोड़ा जा सकता तो जुड़ जाता। बस अब तो इंतजार है कि ईवीएम में तेज बीप के साथ रजिस्टर्ड वोट किसको सिंहासन तक पहुंचाता है या फिर कहीं 2018 सरीखे कशमकश वाली स्थिति तो नहीं बनेगी? क्योंकि पूरे मध्यप्रदेश को देखें करीब 50 सीटों पर कांटे का संघर्ष दिख रहा है जो कि निश्चित रूप से होगा और यही सत्ता का द्वार बनेगा। बस इंतजार है तो 3 दिसंबर को जब प्रदेश के भाग्य का फैसला होगा कि सत्ता का ताज किसके सर सजेगा।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)