– हृदयनारायण दीक्षित
सनातन धर्म राष्ट्रीय बहस का मुद्दा है। कुछ लोगों द्वारा सनातन धर्म को अपमानित किया जा रहा है। यह अनुचित है। अस्तित्व भी सनातन है। सदा से है। सदा रहता है। इसका न आदि है और न अंत। अस्तित्व का अणु परमाणु एक सुसंगत व्यवस्था में गतिमान है। वेदों में ब्रह्माण्ड के इस संविधान का नाम ‘ऋत’ है। ऋत विधान भी सदा से है, इसलिए सनातन है। ‘सनातन’ का अर्थ है जो सदा से है और जिसका आदि और अंत नहीं है। प्रकृति की प्रत्येक इकाई का गुण धर्म होता है। जल का धर्म रस, अग्नि का ताप और स्पर्श वायु का धर्म है। मनुष्य का धर्म लोकमंगल के कर्तव्य हैं। अस्तित्व के संविधान का नाम है सनातन धर्म। सनातन धर्म भारत का धर्म है। इसका ध्येय लोकमंगल है। सनातन धर्म का विकास वैदिक काल से भी पहले हुआ। वैदिककाल के दार्शनिक ऋषि प्रकृति और मनुष्यों के स्वाभाविक परिवेश के प्रति जिज्ञासु रहे हैं। उन्होंने देखा कि अस्तित्व नियमबंधन में है। उन्होंने प्राकृतिक नियमों को ऋत सत्य और धर्म आदि नाम दिये।
धर्म एक है। यही सनातन धर्म है। इसे वैदिक धर्म भी कहते हैं और हिन्दू धर्म भी। इसका विकास वैदिक दर्शन से हुआ है। यह सतत विकासशील है। इसमें कालवाह्य छूटता जाता है, नया कालसंगत जुड़ता जाता है। वैदिक साहित्य में धर्म के लिए ऋत शब्द का प्रयोग भी हुआ है। प्रकृति की गतिविधि में सुसंगत व्यवस्था है। यही ऋत है। वैदिक समाज में प्रकृति की शक्तियों की गतिविधि के प्रति आदर भाव है। जीवन जगत के रहस्यों के प्रति जिज्ञासा भी रही है। जिज्ञासा, प्रश्न व संशय धर्म के विकास में सहायक रहे हैं। रिलीजन या पंथ मजहब धर्म नहीं हैं। वे विश्वास हैं। रिलीजन या मजहब के विश्वासों पर प्रश्न संभव नहीं है। धर्म सत्य है। सत्य धर्म है। प्रश्न और जिज्ञासा सत्य प्राप्ति के महत्वपूर्ण उपकरण हैं।
प्रकृति प्रत्यक्ष है। उसकी शक्तियां भी प्रत्यक्ष सत्य हैं और नियम भी प्रत्यक्ष सत्य हैं। यही सत्य मानव समाज में भी दिखाई पड़ता है। मनुष्य का सदाचरण नियमबद्ध प्रकृति का अनुसरण है। शाश्वत नियमों का पालन करना कर्तव्य है। यही धर्म भी है। ऋग्वेद (2.8.3) में कहते हैं, ‘अग्नि ऋतबद्ध है। इन नियमों का कोई उल्लंघन नहीं कर सकता।’ नदियां ऊपर से नीचे समुद्र की ओर बहती हैं। यह प्रकृति का नियम है और जल का धर्म। नदियां ऋतावरी कही गई हैं। ऋत अर्थात प्रकृति के संविधान की पालनकर्ता। सूर्य के लिए कहते हैं, ‘उसके नियम को इन्द्र, वरुण, रूद्र आदि देवता नहीं तोड़ सकते।’ (2.38.9) ऋषि वायु से कहते हैं, ‘नियमों के अनुसार चलने वाले मरुद्गण और सरस्वती हमारी स्तुतियां सुनें।’ सभी दिव्य शक्तियां प्रकृति के नियमों का पालन करती हैं। देवता शक्तिशाली हैं लेकिन इन नियमों को तोड़ने का अधिकार देवों को भी नहीं है।
ऋत, सत्य और धर्म पर्यायवाची हैं। वैदिककाल में मान्यता थी कि नियम पालन कराना वरुण देवता का कर्तव्य है। वरुण भी यह काम धर्मानुसार ही करते हैं। सूर्य भी धर्मानुसार संसार को प्रकाश से भरते हैं। यहां धर्मानुसार का अर्थ नियमानुसार है। सूर्योदय, सूर्यास्त, दिन के बाद रात, रात के बाद दिन सब नियमानुसार हैं। प्रकृति के सारे नियम सत्य हैं। सनातन हैं। भारतीय परम्परा में विष्णु बड़े देवता हैं। मान्यता है कि वे अवतार लेते हैं। लेकिन विष्णु के लिए भी धर्म पालन अनिवार्य है। उन्होंने तीन पग चलकर ब्रह्माण्ड नाप दिया था। यह कार्य आश्चर्यजनक था। ऋग्वेद के अनुसार उन्होंने यह कार्य धर्मानुसार पूरा किया। ग्रिफ्थ ने धर्म का अनुवाद ‘लॉज’ (विधि) किया है।
प्रकृति की शक्तियां धर्म अनुशासन में हैं। मनुष्य प्रकृति का अंग है। इसलिए मनुष्यों को भी तदानुसार धर्म-नियमों का पालन करना चाहिए। सनातन धर्म का विकास प्राकृतिक नियमों के विस्तार से हुआ। रिलीजन और मजहब में एक ईश्वर और एक देवदूत की आस्था है। प्रत्येक मजहब या रिलीजन का एक पवित्र ग्रंथ है। उनके सत्य अंतिम हैं। उन पर कोई तर्क नहीं हो सकते। लेकिन सनातन धर्म परम्परा में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड प्रश्न और जिज्ञासा के दायरे में हैं। धर्म-नियम धारण करना सभी तत्वों का धर्म है। यह सनातन है। धर्मचक्र प्रवर्तन के बाद बुद्ध ने कहा, ‘ऐष धम्मो सनंतनों।’ बुद्ध ने नए धर्म की घोषणा नहीं की। सनातन धर्म को ही धम्मों सनंतनों कहा था।
हिन्दू धर्म के पालन में विवेकपूर्ण स्वतंत्रता है। धर्म का सम्बंध आचार व्यवहार व आस्तिकता से भी है। धर्म मधुमयता है। वैदिक ऋषि सृजनशील थे। उनकी सृजनशीलता का आलम्बन है मधु। वृहदारण्यक उपनिषद् (2-5-11) में कहते हैं, ‘धर्म सभी भूतों का मधु (सार) है। समस्त भूत धर्म के मधु हैं।’ धर्म में संसार है, संसार में धर्म है। धर्म सम्पूर्ण जगत का नियामक है और दिव्य तत्व है। यह हिन्दुत्व है। हिन्दुत्व लोकमंगल का ध्येयसेवी है।
सनातन धर्म का आधार विवेकपूर्ण दर्शन है। आधुनिक काल में भी धर्म की स्वतंत्रता है। धर्म पालन की जबरदस्ती नहीं है। अंतःकरण की स्वतंत्रता संविधान में 1949 में जुड़ी। सनातन धर्म में प्राचीनकाल से ही अंतःकरण की स्वतंत्रता है। लेकिन कुछ समूह वर्ग धर्म को मजहब व रिलीजन श्रेणी में रखते है। वे धर्म को साम्प्रदायिक बताते हैं। धर्म अंधविश्वास नहीं है। सुख स्वस्ति की आश्वस्ति है। कुछ उत्साही धर्म को वैज्ञानिक विवेचन के दायरे में लाते हैं। निस्संदेह वैज्ञानिक निष्कर्ष सम्माननीय हैं लेकिन विज्ञान की सीमा है। विज्ञान में सत्य का अन्वेषण है। वैज्ञानिक निष्कर्ष अंतिम नहीं होते। नए अविष्कार पुराने निष्कर्ष काट देते हैं। विज्ञान का उपयोग सदुपयोग पर निर्भर है। धर्म और सत्य पर्याय हैं। धर्म का ध्येय लोकमंगल है। धर्म आनंददाता है। राष्ट्रजीवन की आदर्श आचार संहिता है।
सतत विकासशील है सनातन धर्म। श्रीकृष्ण गीता (18.63) में अर्जुन से कहते हैं, ‘इस प्रकार मैंने तुम्हे गुह्य ज्ञान बता दिया। इस पर ठीक से विचार करो और अपनी इच्छानुसार जो चाहो सो करो-यथेच्छसि तथा कुरु।’ दुनिया के किसी भी पंथ मजहब में ऐसी छूट नहीं है। ऋग्वेद के लगभग दस हजार पांच सौ मंत्रों में कहीं भी आज्ञासूचक वाक्य नहीं हैं। सनातन में नित्य नूतन हो जाने की प्रकृति है। इसमें कालवाह्य को छोड़ने और कालसंगत को जोड़ने की क्षमता है। कुछ कालवाह्य मान्यताएं भी संभव हैं। सनातनधर्मी अनेक महानुभावों ने रूढ़ियों की समाप्ति का काम किया है। राजा राममोहन राय, स्वामी दयानंद, विवेकानंद आदि महानुभावों ने सतीप्रथा, बालविवाह, अस्पृश्यता आदि कुरीतियों के विरुद्ध लोक जागरण का काम किया। अस्पृश्यता और जातिभेद समाप्ति को लेकर डॉ. आम्बेडकर, डॉ. हेडगेवार और डॉ. लोहिया ने खूब परिश्रम किया था।
सनातन धर्म ईरान तक प्रवाहमान था। भारत में सर्वत्र था ही। भारत के दक्षिणी हिस्से के निवासी कम्बन ने रामकथा लिखी और सनातन धर्म को प्रतिष्ठा दी। इसी राज्य के निवासी राजगोपालाचारी ने भारतीय संस्कृति के लिए अविस्मरणीय काम किया। उन्होंने सभी वर्णों के मंदिर प्रवेश की मुहिम चलाई। दक्षिण के ही विश्वविख्यात दार्शनिक डॉ. राधाकृष्णन ने भारतीय दर्शन को विश्वव्यापी बनाया। शंकराचार्य भी दक्षिण के थे। उन्होंने भारत की प्रतिष्ठा सारी दुनिया में पहुंचाई। अद्वैत दर्शन में भक्ति भाव भरने वाले रामानुजाचार्य भी दक्षिण के थे। सनातन धर्म आज्ञासूचक संहिता नहीं है। 6 प्राचीन दर्शन व लोकायत जैसे नास्तिक दर्शन भी सनातन धर्म दर्शन का हिस्सा हैं। सुसंगत दार्शनिक दृष्टिकोण है। सनातन धर्म अजन्मा है। इसका न कोई आदि है न कोई अंत।
(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)