– डॉ. प्रभात ओझा
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के हर काम का अपना ढंग है। लोकसभा में ‘128वां संविधान संशोधन विधेयक 2023′ पेश किया जा चुका है। मोदी ने इसे ‘नारी शक्ति वंदन विधेयक’ नाम दिया है। इस विधेयक के पारित होने और राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के साथ यह कानून लोकसभा और देशभर की विधानसभाओं में महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत स्थान सुनिश्चित कराएगा। खास बात यह है कि कुछ क्षेत्रीय दलों के ना- नुकुर के मुकाबले इस विधेयक को सत्तारूढ़ भाजपा और मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस, दोनों का ही समर्थन हासिल है। स्पष्ट है कि विधेयक के कानून बनने में कोई अड़चन नहीं है। मुद्दा यह है मोदी सरकार ने यह राजनीतिक कदम लोकसभा, 2024 के चुनाव के ठीक पहले क्यों उठाया ? कांग्रेस भी सरकार का इतनी सहजता से समर्थन क्यों कर रही है? क्या इस बिल के कानून बनने के बाद 2024 के चुनाव से ही 33 फीसद महिला सांसद चुनी जायेंगी? इन सवालों के जवाब ढूंढ़ने के लिए थोड़ा पीछे घूमकर देखना होगा।
सबसे पहले 1996 में एचडी देवेगौड़ा सरकार के दौरान महिला आरक्षण बिल संसद में रखा गया लेकिन पास नहीं हो सका। साल 1997 में इंद्र कुमार गुजराल सरकार ने भी इस तरह की कोशिश की। वाजपेयी सरकार के दौरान 1998 में भी बिल प्रस्तुत किया गया परन्तु परिणाम ढाक के तीन पात वाला ही रहा। दूसरी बार सरकार बनने पर वाजपेयी ने 1999 फिर 2002 और 2003-04 में भी इसपर अमलीजामा की कोशिश की । हर बार सरकार में शामिल दलों में मतभेद इसमें बाधक बना। वर्ष 2010 में मनमोहन सिंह सरकार का एक साल बीत चुका था। सरकार इस विधेयक को फिर से लेकर आई। यूपीए में शामिल मुलायम सिंह यादव की समाजवादी पार्टी और लालू प्रसाद यादव का राष्ट्रीय जनता दल इसके विरोधी थे। बाद में इन दलों ने कहा कि वे इसके विरोधी नहीं, बल्कि बिल की कुछ व्यवस्थाओं के खिलाफ हैं। वे चाहते थे कि राजनीतिक दल अपने टिकट बंटवारे में ही महिलाओं को 20 प्रतिशत का आरक्षण दें। तब लोकसभा में बिल फिर अटक गया। राज्यसभा में कांग्रेस का बहुमत था, 9 मार्च, 2010 को बिल पास हो गया। लोकसभा का कार्यकाल खत्म होता रहा अथवा सदन भंग होता रहा।
नियमानुसार सदन के सत्र के साथ विधेयकों की वैधता भी खत्म हो जाया करती है। राज्यसभा स्थायी सदन है। इसलिए वहां से यह बिल पारित माना गया है। अब सिर्फ लोकसभा की स्वीकृति चाहिए। यहीं पहले दोनों सवाल के जवाब मिल जाते हैं। हर सरकार महिला आरक्षण की बात करती आयी है। भले मन में कुछ भी हो, राजनीतिक लाभ लेने की मंशा छिपी नहीं रह सकती। दूसरे प्रश्न का जवाब भी इस बात में है कि जो कांग्रेस राज्यसभा में इसे पारित करा चुकी है, वह अब पीछे क्यों हटेगी। रही बात 2024 से ही इसके लागू होने की, इसका उत्तर कुछ स्थितियां स्पष्ट करने के बाद मिलेगा।
विपक्ष कह रहा है कि महिला आरक्षण 2029 लोकसभा चुनाव से पहले संभव नहीं है। यह सच भी है। असल में इस विधेयक पर अमलीजामा की लंबी संवैधानिक प्रक्रिया है। सरकार ने स्वयं कहा है कि इसे लोकसभा सीटों के परिसीमन के बाद लागू किया जायेगा। अभी सीटें 2011 की जनगणना के आधार पर हैं। कोरोना के चलते 2021 में यह नहीं हो सकी थी। कांग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी सहित कई पार्टियां जाति आधारित गणना की मांग कर रही है। सरकार इस पर चुप है। बहरहाल, उसका अधिकार है कि जैसे चाहे कराए। जनगणना के बाद सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज की अध्यक्षता में परिसीमन आयोग का गठन किया जाएगा। आयोग लोकसभा और विधानसभा क्षेत्रों के परिसीमन के साथ ही महिलाओं के लिए 33 प्रतिशत सीटों का सुझाव देगा। भविष्य में यह सीटें बदलती रहेंगी। तस्वीर साफ है कि महिला आरक्षण कानून जनगणना और परिसीमन के बाद ही लागू होगा। इस स्थिति में 2024 के चुनाव इस कानून के मुताबिक, मुमकिन नहीं हैं।
लोकसभा और विधानसभाओं के लिए महिला आरक्षण जब भी लागू हो, इसके औचित्य पर कभी सवाल नहीं होंगे। आजादी के 75 साल बाद भी स्थिति यह है कि आज लोकसभा में सिर्फ 82 और राज्यसभा में 31 महिला सांसद हैं। यह संख्या क्रमशः 15 प्रतिशत और 13 प्रतिशत ही है। सवाल यह भी है कि यह आरक्षण पंचायतों में महिलाओं के प्रतिनिधित्व जैसे हाल में तो नहीं पहुंच जायेगा। उत्तर भारत के कई राज्यों में पंचायत प्रतिनिधि महिलाओं के काम उनके पति अथवा पिता ही किया करते हैं। लोकसभा पर नजर डालें तो आज 32 महिला सांसद किसी नेता की पत्नी अथवा पुत्री ही हैं। ठीक है कि वे अपना काम स्वयं कर रही हैं। जब संख्या बढ़ेगी, क्या इसी क्षमता की प्रतिनिधि चुन कर आएंगी। इस पर अभी से रोना ठीक नहीं। मुख्य बात यह है कि महिलाओं को और अधिक प्रतिनिधित्व मिलने का रास्ता साफ हो रहा है। राजनीतिक दलों में इसका श्रेय लेने की होड़ तो रहेगी ही।