Friday, November 22"खबर जो असर करे"

‘एक देश-एक चुनाव’ आज की सबसे बड़ी जरूरत

– श्याम जाजू

वर्तमान दो वर्ष देश के लिए चुनावी साल कहे जा सकते हैं। इस साल 2023 में 10 राज्यों की विधानसभा और 2024 में सात राज्यों की विधानसभा और लोकसभा चुनाव होने हैं। अर्थात दो वर्ष में 18 चुनाव। इनके साथ ही कई विधानसभाओं और लोकसभा की कुछ खाली सीटों के लिए उपचुनाव भी होंगे। मतलब यह की आने वाले दिनों में देश चुनाव में व्यस्त रहेगा। ऐसे समय में जब देश-दुनिया अनेक चुनौतियों से दो-चार हो रही है, पूरी मानवता कोविड और यूक्रेन युद्ध के दुष्प्रभाव से जूझ रही है और जिस समय भारत संघर्ष से लड़कर अपनी अर्थव्यवस्था को मजबूत करने में लगा हो, क्या ये उचित लगता है कि सारा देश और प्रशासनिक तंत्र चुनाव व्यवस्था में ही लग जाए? क्या यह उचित नहीं होगा कि सारे चुनाव एक बार में, एक साथ कराए जाएं और बार-बार चुनाव पर होने वाले खर्च और व्यवधान से बचा जा सके? देश की चिंता करने वालों के मन में यह विचार बार-बार आता है। समय आ गया है कि हम सब इस पर गंभीरता से विचार करें।

एक साथ चुनाव कराने का मुख्य तर्क यह है कि इससे काफी समय और संसाधनों की बचत होगी। वर्तमान में, देश में चुनाव कई चरणों में होते हैं। यह प्रक्रिया कई माह चलती है। यह न केवल सरकार के सामान्य कामकाज को बाधित करता है बल्कि राजकोष पर भी बड़ा बोझ डालता है। एक साथ चुनाव कराने का मतलब होगा कि प्रक्रिया की अवधि और समग्र लागत को कम करना। एक साथ चुनाव कराने के पक्ष में एक और तर्क यह है कि इससे मजबूत और अधिक स्थिर शासन को बढ़ावा मिलेगा। लगातार होते चुनाव और सत्ता परिवर्तन से सरकारी नीतियां और कार्यक्रमों की निरंतरता बाधित होती है। साथ ही सरकार की जवाबदेही में भी कमी आ जाती है। सरकार का ध्यान शासन से हटकर चुनाव प्रचार पर चला जाता है। एक साथ चुनाव कराने का मतलब होगा कि सत्ता में रहने वाली सरकार पूरे कार्यकाल के लिए लोगों के प्रति जवाबदेह होगी। इससे अधिक बेहतर शासन की संभावना बढ़ेगी। इसके अतिरिक्त, एक साथ चुनाव कराने से मतदान प्रतिशत बढ़ सकता है। जब चुनाव अलग-अलग समय पर और बार-बार होते हैं, तो मतदाताओं को अरुचि होने लगती है। इस वजह से मतदान प्रतिशत घट जाता है। एक ही समय में सभी चुनाव कराने से मतदाताओं के लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हिस्सा लेने की अधिक संभावना होगी।

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी देश में समकालिक चुनाव के बड़े हिमायती हैं और अनेक बार देश में एक साथ चुनाव को लेकर सार्वजनिक मंचों पर अपनी राय जाहिर कर चुके हैं। 2014 के चुनाव से पहले इस मुद्दे को भारतीय जनता पार्टी के मैनिफेस्टो में भी शामिल किया गया था। उसी साल जून में एक टीवी इंटरव्यू में उन्होंने एक साथ चुनाव कराने को अत्यंत आवश्यक बताया था और चुनाव आयोग का आह्वान किया था की वह इस दिशा में काम करे। प्रधानमंत्री ने एक साथ चुनाव की वकालत करते हुए कहा था कि इस कदम से ‘सार्वजानिक जीवन में पारदर्शिता बढ़ाने और भ्रष्टाचार से लड़ने में मदद मिलेगी।’ प्रधानमंत्री मोदी की पहल का समर्थन भारत का निर्वाचन आयोग भी कर चुका है पर वह इसके लिए सभी दलों की सहमति चाहता है। वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी भी 1995 और 2010 में इस मुद्दे को जोर-शोर से उठा चुके हैं। पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने भी लोकसभा और विधानसभाओं का चुनाव एक साथ कराने का समर्थन किया था। उन्होंने कहा था, ‘चुनाव सुधार पर सकारात्मक चर्चा का वक्त आ गया है। समय आ गया है कि हम पुराने समय में लौट जाएं, जब स्वतंत्रता के तुरंत बाद लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ होते थे।’ समाजवादी पार्टी के नेता और उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के अलावा बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को कई मौकों पर एक ही समय पर चुनाव कराने के पक्ष में राय देते हुए मैने देखा है।

कुछ वर्ष पूर्व लोकसभा में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर हुई चर्चा का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि अकसर चुनाव होते रहते हैं और इस पर बड़ी राशि खर्च होती है। बड़ी संख्या में शिक्षकों सहित एक करोड़ से अधिक सरकारी कर्मचारी चुनाव प्रक्रिया में शामिल होते हैं। यह सिलसिला जारी रहने पर शिक्षा के क्षेत्र को अधिकतम नुकसान होता है। इसके अलावा सुरक्षा बलों को भी चुनाव कार्य में लगाना पड़ता है। इससे देश की सुरक्षा कमजोर पड़ जाती है। प्रधानमंत्री ने सभी राजनीतिक दलों का आह्वान करते हुए लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ कराने पर जोर दिया था। उन्होंने कहा था कि राजनीतिक दल इसे अन्य नजरिये से न देखें। यह काम एक पार्टी या सरकार नहीं कर सकती। हम सबको ही मिलकर एक रास्ता खोजना होगा।

दरअसल, एक साथ चुनाव कराने की कवायद लंबे समय से चल रही है। दिसंबर, 2015 में संसद की एक स्टैंडिंग कमेटी ने देश में सभी विधानसभा चुनाव को दो चरणों में पूर्ण कराने की संस्तुति की थी। अप्रैल, 2018 में विधि आयोग ने समकालिक चुनाव पर तीन पृष्ठों का एक श्वेतपत्र जारी किया था। इस मसौदे में विधि आयोग ने तथ्यों के आधार पर समकालिक चुनाव की जरूरत पर बल देते हुए इससे जुड़ी व्यापक चर्चा का आह्वान भी किया था। आयोग के मसौदे में समकालिक चुनाव को लेकर पूर्व में उठी मांगों अथवा सिफारिशों का हवाला भी दिया गया था। इतिहास में जाकर पड़ताल करें तो समकालिक चुनाव का विचार सबसे पहले चुनाव आयोग की 1983 में जारी वार्षिक रिपोर्ट में आया था।

इसके बाद 1999 में विधि आयोग की रिपोर्ट और वर्ष 2015 में संसद की स्थायी समिति की रिपोर्ट में भी समकालिक चुनाव पर सकारात्मक चर्चा उभर कर आई थी। इस विषय पर 2017 में नीति आयोग ने भी एक विश्लेषण पत्र जारी करके समकालिक चुनाव की सिफारिश की थी। नीति आयोग ने तो 2024 के लोकसभा और विधानसभा चुनाव एक साथ करने का सुझाव भी दिया था। नीति आयोग का मानना था कि लोकसभा और विधानसभा, दोनों चुनाव एक साथ कराना राष्ट्रहित में होगा। आयोग ने अपने वक्तव्य में कहा, ‘हम 2024 में लोकसभा चुनाव से एक साथ दो चरणों में चुनाव कराने की ओर आगे बढ़ सकते हैं। इसमें अधिकतम एक बार कुछ विधानसभाओं के कार्यकाल में कटौती करनी होगी या कुछ को कार्यकाल विस्तार देना होगा।’ आयोग ने सुझाव दिया था कि राष्ट्रहित में इसे लागू करने के लिए संविधान और इस मामले पर विशेषज्ञों, थिंक टैंक, सरकारी अधिकारियों और विभिन्न राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों सहित पक्षकारों का एक विशेष समूह गठित किया जाना चाहिए।

सवाल है कि क्या वाकई अब समय आ गया है कि देश को समकालिक चुनाव की तरफ ले जाने की पहल करनी चाहिए ? क्या इसके लिए यह सर्वाधिक अनुकूल अवसर नहीं है, क्योंकि देश में सर्वाधिक हिस्से में सत्ता पर काबिज दल इसके लिए तैयार हैं। क्या इस अवसर को समकालिक चुनाव के लिहाज से इसलिए माकूल नहीं माना चाहिए, क्योंकि सत्ताधारी दल के साथ-साथ विधि आयोग और नीति आयोग जैसी संस्थाएं इसपर गंभीरता के साथ विचार कर रही हैं।

दरअसल आजादी के बाद देश में चुनाव एक साथ ही होते थे। 1951-52 में पहले आम चुनाव में लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ ही हुए थे। यह सिलसिला 1967 तक निर्विघ्न चला। 1968 और 1969 में कुछ विधानसभाओं के समय पूर्व भंग होने और 1971 में लोकसभा के मध्यावधि चुनाव होने से यह क्रम टूट गया। इसके बाद सिर्फ आठवीं, दसवीं, चौदहवीं और पंद्रहवीं लोकसभा ही अपना कार्यकाल पूर्ण कर पाईं। अब स्थिति यह है कि देश में प्रतिवर्ष छोटे-बड़े औसतन पांच-सात चुनाव होते हैं। इन लगातार होते चुनाव से न केवल बड़ा खर्च होता है बल्कि लगातार लागू होती आचार संहिता से शासकीय कार्य बुरी तरह प्रभावित होते हैं। नीति आयोग के अनुसार लगातार चुनाव होते रहने से नीति निर्माण में स्थायित्व नहीं रहता और मतदाताओं को लुभाने के चलते संरचनात्माक सुधारों के बजाय अदूरदर्शी और लोकलुभावन निर्णयों को ज्यादा प्राथमिकता दी जाती है।

एक साथ चुनाव कराने के पक्ष में दिए जाने वाले मूलतः चार तर्क हैं। एक- इससे बार-बार चुनाव कराने के खर्च से बचा जा सकेगा। इससे न केवल धन बल्कि समय की भी बचत होगी। दो- मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट अर्थात आचार संहिता की वजह से शासकीय कार्यों को ठप होने से रोका जा सकेगा और सरकारें बार-बार चुनाव के बजाय शासन करने पर ध्यान दे पाएंगी। तीन-सार्वजनिक जीवन में चुनाव से होने वाले व्यवधानों को सीमित किया जा सकेगा। चार-लगभग हर समय किसी न किसी चुनाव में तैनात हमारे सुरक्षा बलों को सुरक्षा और कानून-व्यवस्था के रखरखाव में लगाया जा सकेगा।

इन तर्कों के आधार पर प्रधानमंत्री की एक साथ चुनाव की योजना को व्यापक जन-समर्थन हासिल है। पर अहम सवाल यह है कि जब सबकुछ इतना माकूल है तो रुकावट किन बिंदुओं पर है? दरअसल, समकालिक चुनाव की राह में रुकावट सभी दलों की सहमति के प्रश्न पर है। चुनाव आयोग भी कह चुका है कि वह समकालिक चुनाव के लिए तैयार है, बशर्ते सभी दल इस पर एकमत हो जाएं। पर क्या सभी राजनीतिक दल इस पर सहमति बना पाएंगे? अपवाद स्वरूप कुछ दलों को छोड़ दिया जाए तो एक साथ लोकसभा और विधानसभा चुनाव कराए जाने को लेकर असहमत होने वाले सभी दल भाजपा के विरोधी दल हैं एवं कांग्रेस के अलावा लगभग सभी स्थानीय जनाधार वाले दल भी कहे जा सकते हैं।

ये दल ‘संघीय ढांचे’ और लोकतंत्र का हवाला देते हुए एक साथ चुनाव का विरोध करते हैं। हालांकि यह कुतर्क ही है, क्योंकि एक साथ चुनाव कराने से संघीय ढांचा कहीं से कमजोर नहीं होता। जानकार यह भी मानते हैं कि दरअसल इस विरोध के मूल में उनका डर है की कहीं बड़े दल और मोदी जैसे बड़े और लोकप्रिय नेता की लहर में उन्हें नुकसान न हो जाए जो कि एक साथ चुनाव होने पर संभव है। पर यह डर अनुचित है। यदि एक साथ सभी चुनाव हों तो परिस्थिति अनुसार सभी दल कुछ न कुछ खोने की स्थिति में होंगे। यह किसी एक दल की चुनौती नहीं है। अत: इसे दलगत आधार पर खोने-पाने की सोच से ऊपर उठकर देखने की आवश्यकता है।

इसमें कोई दोराय नहीं कि समकालिक चुनाव समय की आवश्यकता है। हमें देश को सालों-साल चुनावी माहौल में रहने से बचाने की जरूरत है। चुनाव लोकतंत्र का पर्व अवश्य हैं, लेकिन पर्व के प्रति उत्सव मनाने की शर्त यह भी होती है कि वह हर घड़ी दरवाजे पर दस्तक नहीं दे। अत्यधिक चुनाव स्थिति से लोकतंत्र का यह पर्व संसाधनों और समय के दुरुपयोग का कारक न हो, यह भी सोचना आवश्यक है।

अब समय आ गया है जब हम गंभीरता पूर्वक ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ की अवधारणा पर कार्य करें। जैसी देशभर में चर्चा है कि इसी काम के लिए संसद के विशेष अधिवेशन का आयोजन हो रहा है। प्रत्यक्ष रूप से अगर यह बात यशस्वी हो गई तो निश्चित रूप से देश के उज्ज्वल भविष्य का रास्ता प्रशस्त होगा। समर्थ और सशक्त विश्व में सबसे बड़े लोकतंत्र का सुखद संदेश जाएगा।

(लेखक, भारतीय जनता पार्टी के निवर्तमान राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं।)