Friday, November 22"खबर जो असर करे"

लाडली लक्ष्मी से लेकर लाडली बहना तक स्त्री मुस्कराई

– प्रमोद भार्गव

मध्य प्रदेश से शुरू हुई लाडली लक्ष्मी योजना का कमाल अब पूरे देश में दिखाई दे रहा है। लिंगानुपात के परिप्रेक्ष्य में स्त्री का जो अनुपात घट रहा था, उसमें जनसांख्यिकीय बदलाव देखने में आया है। पहली बार महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक गिनने में आई है। साथ ही लिंगानुपात 1020 के मुकाबले 1000 रहा है। यह जानकारी राष्ट्रीय परिवार और स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 के निष्कर्षों से मिली है। स्त्रियों की संख्या 1000 के पार हो रही हैं तो इसका अर्थ है कि भारत आर्थिक प्रगति के साथ-साथ लिंगानुपात में भी विकसित देशों के समूह के बराबर आ रहा है। इसके लिए महिला सशक्तिकरण के अंतर्गत मध्य-प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा शुरू की गई लाडली लक्ष्मी योजना और बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ जैसी योजनाएं रही हैं, जो शैक्षिक व वित्तीय समावेशन, लैंगिक पूर्वाग्रह तथा असमानताओं से लड़ने में सार्थक रही हैं। इन योजनाओं की सफलता के बाद, इन्हें केंद्र सरकार द्वारा देशभर में लागू किया गया, इसी का परिणाम है कि आज घर-आंगन और देश-प्रदेश में लड़की उन्मुक्त भाव से खिलखिला रही हैं। भविष्य में लाडली बहना योजना भी नारी सशक्तिकरण के सार्थक परिणाम देने वाली है।

मध्य-प्रदेश के ग्वालियर-चंबल अंचल में पुत्र जन्म की मनौती के लिए एक लोकोक्ति प्रचलन में है-‘लाली तू जा, लाला को ले आ।‘ मसलन बेटी के जन्म पर प्रार्थना की जाती है कि ‘बेटी तू तो जा अर्थात मौत को गले लगा ले और पुत्र के रूप में पुनर्जन्म ले। इस बीज मंत्र का जाप करते हुए नवजात बेटी की जीवन-लीला खत्म कर देने के उपाय रच दिए जाते थे, लेकिन अब इस पूरे अंचल में लड़कियां मुस्कुरा रही हैं। मध्य-प्रदेश शासन की ‘लाडली लक्ष्मी योजना‘ के अस्तित्व में आने के बाद बेटी को आर्थिक सुरक्षा का जो आधार मिला है, उससे कुरीति का रूप ले चुकी मान्यता आमूलचूल बदलाव की स्थिति में है। इन योजनाओं के अमल में आने से भ्रूण हत्या पर अंकुश लगा है। जबकि प्रदेश के 15 जिलों में वर्ष 2001 की जनगणना के मुताबिक लिंगानुपात बदतर हालत में था। प्रति एक हजार बालकों की तुलना में बालिकाओं की संख्या मुरैना में 822, भिण्ड में 829, ग्वालियर में 848, दतिया में 857, शिवपुरी में 858, छतरपुर में 869, विदिशा में 875, सागर में 884, गुना में 885, टीकमगढ़ में 886, भोपाल में 895, होशांगाबाद में 896, पन्ना में 901, जबलपुर में 908 और श्योपुर में 909 है। मध्य-प्रदेश में वर्ष 1901 में यह अनुपात 990 था, जो वर्ष 1951 तक आते-आते 967 रह गया था। मसलन प्रति एक हजार पुरुषों पर 33 महिलाएं कम थीं, किंतु वर्ष 2001 की जनगणना में यह घट कर 929 रह गया। अब सब जगह यह अनुपात बढ़ कर 930-31 के आसपास हैं। यह वृद्धि अप्रत्याशित कही जा सकती है।

पंजाब जिसे तुलनात्मक नजरिए से आर्थिक रूप से समृद्ध और शिक्षित होने के कारण देश का आदर्श राज्य माना जाता है, वहां लिंगानुपात बेहद चिंताजनक था, यहां के फतेहगढ़ साहब जिले में एक हजार बालकों पर मात्र 754 बालिकाएं रह गई थीं। यह देश का ऐसा जिला था, जहां सबसे ज्यादा लिंगानुपात गड़बड़ाया हुआ था, किंतु अब यह अनुपात 900 के करीब पहुंच गया है। देश के दस जिले ऐसे हैं, जहां लिंगानुपात जबरदस्त चिंताजनक स्थिति में है, उनमें सात पंजाब में स्थित हैं। इसके बाद दिल्ली, हरियाणा और गुजरात हैं।

भ्रूण लिंग के विरुद्ध प्री नेटल डायग्नोस्टिक टेक्निक (पीएनडीटी) 1994 कानून क्रियाशील होने के बावजूद भ्रूण लिंग परीक्षण पर अंकुश नहीं लग पाया था। बल्कि विडंबना यह रही कि आज तक इस कानून के तहत एक भी चिकित्सक के विरुद्ध दण्डात्मक कार्रवाई अंजाम तक नहीं पहुंच पाई है। कोख में ही स्त्री भ्रूण को नष्ट करने में ग्रामीण अशिक्षित वर्ग की तुलना में शहरी उच्च शिक्षित वर्ग बड़ी संख्या में संलग्न है। अब तो भ्रूण लिंग परीक्षण के सिलसिले में अल्ट्रा सोनोग्राफी से भी आगे की तकनीक विकसित हो गई है। इस तकनीक का धंधा तो अजन्मी बेटियों की कीमत पर ही फल-फूल रहा है। अमेरिकी मूल की यह कंपनी अत्याधुनिक तकनीक के माध्यम से मात्र पांच हफ्ते के गर्भस्थ भ्रूण के लिंग की पहचान करने का विज्ञापन बेवसाइट पर बेखौफ कर रही है। इस कुप्रथा का संबंध शैक्षिक जागरूकता से भी नहीं है। क्योंकि शिक्षा से सामाजिक संपर्क और संपन्नता तो बढ़ी परंतु समता के मूल्य कायम नहीं हो पाए। इसके बाद अवतरित हुए नए उपभोक्तावादी समाज में बेटों की चाहत और बढ़ गई। पंजाब जैसे आधुनिक राज्य में यह चाहत तब और बढ़ गई, जब वहां गैर प्रवासी भारतीय (एनआरआई) पत्नियां भी पतियों द्वारा ठुकरा दी गईं।

बताते हैं कि पूरे देश में एक लाख एनआरआई पत्नियां ऐसी हैं, जिनके पति उन्हें और नवजात शिशुओं को छोड़कर लापता हो गए। इनमें से आधी पंजाब की है। पंजाब में ऐसे हालात के चलते भी कन्या भ्रूण हत्या को बढ़ावा मिला हुआ था। बालिकाओं की संख्या कम होना किसी भी विकासशील समाज के लिए बड़ी चुनौती है। इस चुनौती से तभी निपटा जा सकता है, जब स्त्री की आर्थिक हैसियत तय हो और समाज में समानता की स्थितियां निर्मित हों ? इस नजरिए से मध्य प्रदेश में ‘लाडली लक्ष्मी योजना‘ एक कारगर औजार साबित हुई और इसीलिए इसे देश के मॉडल के रूप में मान्यता मिली। दिल्ली, हरियाणा और पंजाब ने ही नहीं पूरे देश ने इस योजना का अनुकरण किया और बेटी बचाने के लिए जुट गए। क्योंकि बेटी बचेगी, तभी बेटे बचेंगे और सृष्टि की निरंतरता बनी रहेगी। जैविक तंत्र से जुड़े इस सिद्धांत को हमारे ऋषि-मुनियों ने भलि-भांति आज से हजारों साल पहले समझ लिया था, इसीलिए भगवान शिव-पार्वती के रूप में अर्धनारीश्वर के प्रतीक स्वरूप मंदिरों में मूर्तियां गढ़ी गईं, जिससे पुरुष संदेष लेता रहे कि नारी से ही पुरुष का अस्तित्व अक्षुण है। हमने शिव-पार्वती की पूजा तो की, लेकिन उनके एकरूप में अंतर्निहित अर्धनारीश्वर के प्रतीक को आत्मसात नहीं किया।

लाडली लक्ष्मी योजना के बाद नारी सशक्तीकरण का पुख्ता उपाय लाडली बहना योजना है। सवा करोड़ लाडली बहनों के खाते में प्रतिमाह 1000 रुपए डालने का सिलसिला शुरू हो गया है। इसमें दो किस्तें देने के बाद दो मापदंड बदले गए हैं। अब 21 से 23 साल की उन बेटियों को भी इस योजना में भागीदार कर लिया है, जो विवाहित हैं। साथ ही जिन परिवारों के पास ट्रैक्टर हैं, उन घरों की महिलाएं भी लाडली बहना योजना के लिए पात्र कर दी हैं। इसके पहले इस योजना में 23 से 60 साल की महिलाएं पात्र थीं।

साफ है, शिवराज ने इस योजना की लोकप्रियता को देखते हुए नियम बदले हैं। जिससे इन महिलाओं के वोट भी भाजपा को मिल जाए, साथ ही शिक्षित बेरोजगार युवाओं के लिए पैसा कमाऊ दुल्हन भी मिल जाए। मुख्यमंत्री ने यह वादा भी कर दिया कि आगे यह राशि 3000 रुपए तक बढ़ा दी जाएगी। मसलन शिवराज के राज में कन्या हो, युवती हो या फिर महिला आयु की हर अवस्था में उसकी आर्थिक सुरक्षा का प्रबंध मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कर दिया है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)