– हृदयनारायण दीक्षित
सावन शिवार्चन और नीराजन आराधन का मास है। तब मेघ भी उतर आते हैं -शिव आराधक होकर। सुनता आया हूं कि शिव सोम प्रेमी हैं। सोम प्रकृति की सृजन शक्ति है। सृजन की यही शक्ति शिव ललाट की दीप्ति है। शिव के माथे पर सोम चन्द्र हैं। ऋग्वेद के ऋषियों के दुलारे सोम वनस्पतियों के राजा हैं। सावन वनस्पतियों के युवा हो जाने का काल है। झमाझम वर्षा का महीना। वायु भी शिव संकल्प सूक्त गुनगुनाते हुए बहती है और रुकती है उमस सहित तो शिव का रूद्राभिषेक करने के लिए। सोम वनस्पतियों के राजा हैं। सोम प्रसन्न होते हैं। वनस्पतियां और औषधियां उगती हैं। खिलती हैं। खिलखिलाती हैं। भारतीय सप्ताह में एक दिन सोम का। पहला दिन रविवार रवि का तो दूसरा दिन सोमवार सोम का। सोमवार को शिव आराधन की मुहूर्त जाना गया है। ठीक भी है। हमारे समाज में भी प्रतिष्ठित लोग सप्ताह में एक दिन खुलकर मिलते हैं। बाकी दिन व्यस्त रहते हैं।
शिवभक्तों को सोमवार प्रीतिकर है। शिव भी सोमवार का दिन भक्तों के लिए ही खाली रखते होंगे। नहीं जानता सच। एक बार सावन का अंतिम सोमवार था। मैंने समूची वाराणसी को सोम शिव पाया। बम भोले और हर-हर महादेव की गूंज। लोक आह्लाद का आनंद। पौराणिक शिव बड़े आकर्षक हैं। बैल की सवारी और पार्वती मां से बतरस। ‘विज्ञान भैरवतंत्र’ में शिव और पार्वती के मध्य गहन दार्शनिक संवाद का उल्लेख है।
हमारी अपनी प्रिय बचपने से ही हमारे मन को वात्सल्य रस देने वाली सई नदी हमारे गांव के पास ही शिव सीढ़ी का जलाभिषेक करती है। जलराशि निरंतर घटी है पर भाव राशि का क्या कहना? यहां भवरेश्वर शिव मंदिर में सावन के सोमवार लाखों श्रद्धालु जुटते हैं। लोकमन हर-हर महादेव हो जाता है। ऋग्वेद वाले रूद्र शिव ‘सुगंधिं पुष्टिवर्द्धनं’ हैं। देवों को पुष्पार्चन किया जाता है लेकिन शिव को बेलपत्र और धतूरे का फल। शिव मस्त-मस्त बिंदास देवता हैं। परम योगी। चरमोत्कर्ष वाले नृत्यकत्र्ता। श्रीकृष्ण के पास बांसुरी तो शिव के पास डमरू। बांसुरी की धुन पर तीनों लोक मोहित हुए थे तो डमरू की धुन पर तीनों लोक अस्तित्व में रहते हैं। शिव जब चाहते हैं, रूद्र हो जाते हैं। प्रलयंकर हो जाते हैं लेकिन यही रूद्र शिव हैं। ऋग्वेद में ‘जो रूद्र है, वही शिव भी है।’ त्रिशूल उनका हथियार। सोचता हूं कि ये तीन शूल क्या हैं? ये दैविक, दैहिक और भौतिक कष्ट तो नहीं हैं? या भौतिक, आधिभौतिक और आध्यात्मिक वेदनाएं हैं। शिव दुख हारी हैं – त्रिशूल धारक जो हैं। लेकिन सोचने से मन नहीं भरता। मन यहां, वहां, जहां, तहां भागता ही है। शिव संकल्प मंत्र दोहराता हूं- ‘हमारा मन भागता है। यहां वहां। ऐसा हमारा मन शिव संकल्प से भरापूरा हो- तन्मे मनः शिव संकल्पं अस्तु।’ मैं राजनीति में हूं सो मंच, माला, माइक का त्रिशूल भीतर बहुत गहरे तक धंसा हुआ है। कह सकता हूं कि मैं भी त्रिशूलधारी हूं। सोम सामने है, भीतर ओम है। लेकिन सोम से वंचित हूं। ओम् की अनुभूति नहीं। पढ़ा सुना काम आता नहीं। करूं तो क्या करूं? ऋग्वेद के ऋषि वशिष्ठ ने आर्तभाव से पुकारा था न्न्यम्बक रूद्र को – हमें पकी ककड़ी की तरह मृत्यु बंधन से मुक्त करो। मैं भी डंठल से चिपका हुआ पका फल हूं। शिव निर्णय लें कि ‘उवरिक्मिव मृत्योरमोक्षीय’ कब करना है?
भारतीय साहित्य शिव-पार्वती के सम्वाद से भरापूरा है। पार्वती प्रश्नाकुल हैं और शिव समाधानकत्र्ता। तुलसीदास के रामचरित मानस में पार्वती ने सीधे राम के अस्तित्व पर ही प्रश्न पूछा। शिव ने ब्रह्म तत्व समझाया लेकिन पार्वती ने स्वयं परीक्षा ली। लेकिन शिव सब जानते थे। वे प्रतिपल यत्र-तत्र सर्वत्र उपस्थित हैं। वे नीलकंठ हैं। गले में सांप है। चन्द्रमा शिव का प्रिय आभूषण है। शरद् चन्द्र की पूनो शिव रस सोम की ही वर्षा करती है। शिव ने सनत कुमारों को बताया कि, ‘उनके तीन नेत्र हैं। सूर्य दायां नेत्र है और बायां चन्द्रमा। अग्नि मध्य नेत्र हैं। सूर्य की अपनी प्रिय राशि सिंह है। चन्द्र की कर्क है। सूर्य इस यात्रा में कर्क से सिंह क्षेत्र में पहुंचते हैं। तब बड़ा शुभ मुहूर्त बनता है। ऐसी संक्रांति सावन मास में पड़ती है। सो शिव को सावन प्रिय है। ‘ सावन है भी मनभावन। तब धरती और आकाश मधुरसा हो जाते हैं। शिव का सावन प्रेम तरल सरल ही तो है। श्रीकृष्ण को बसंत ऋतु प्रिय है और मार्गशीर्ष-अगहन का मास। लेकिन शिव की बात निराली है। ऋतुराज बसंत में पृथ्वी और वायु का चरम आनंद है। सावन में पांचों महाभूत – क्षिति, जल, पावक और गगन समीर भी मधुरसा हो जाते हैं। आकाश में मेघ गर्भ धारण करते हैं। धरती हरीतिमा के परिधान धारण करती है और प्रियतमा हो जाती है। धरती माता और आकाश पिता की प्रीति परवान चढ़ती है। आकाश मेघ भेजते हैं, धरती लहालोट होती है। वायु सोम तरंग लेकर बहती है। आकाश इन्द्रधनुष रचता है। लोक लहक उठता है।
संसार क्षर से क्षर की यात्रा है। भौतिक से भौतिक की ओर लेकिन जीवन में भौतिक के साथ चेतन भी है। अन्तर्यात्रा भौतिक से चेतन की यात्रा है। स्थूल से सूक्ष्म की यात्रा। पत्ती, पुष्प से पेड़ और पेड़ से जड़ की यात्रा सुगम है। जड़ें देखते ही बीज का ध्यान आता है। फूल का पकना ही बीज है। बीज के भीतर अनंत संभावनाएं हैं। फिर पेड़, शाखा, पत्तियां और फूल। फिर-फिर बीज। ओम् बीज के भीतर की प्राण शक्ति है और सोम इसी बीज का पल्लवन पुष्पन। ऋग्वेद में सोम पर पूरा एक मण्डल है। सोमवार हर सातवें दिन उन्हीं की स्मृति दिलाता है। सोम से ओम् की यात्रा शिव है। परम चरम आनंद है। यहां कोई भौगोलिक दूरी नहीं। सोम और ओम् साथ-साथ हैं। सोम शिव के ललाट पर हैं ही। शिव रूपक का सोम प्रतीक बड़ा प्यारा है। ऋग्वेद में सोम को पृथ्वी का निवासी बताया गया है। सोम असाधारण देवता हैं। वे जलों के पुत्र हैं और आनंददाता हैं।
शिव भोले शंकर हैं। औघड़दानी हैं। गण समूहों के मित्र हैं। गणों के साथ स्वयं भी नृत्य करते हैं। गण देवता गणेश स्वाभाविक ही उनके पुत्र हैं। वे रूद्र शिव एशिया के बड़े भूभाग में प्राचीन काल से ही उपासित हैं। शिव गूढ़ रहस्य हैं। युधिष्ठिर के मन में शिव जिज्ञासा थी। शर शैय्या पर लेटे भीष्म से उन्होंने तमाम प्रश्न पूछे थे। वे भीष्म से शिव गुण भी सुनना चाहते थे। भीष्म ने कहा, ‘शिवगुणों का वर्णन करने में मैं असमर्थ हूं। वे सर्वत्र व्यापक हैं। ब्रह्मा, विष्णु और इन्द्र के सृष्टा हैं। वे प्रकृति से परे और पुरुष से विलक्षण हैं। श्रीकृष्ण के अलावा उनका तत्व दूसरा कोई नहीं जानता।’ फिर अर्जुन से कहा, ‘रूद्र भक्ति के कारण ही श्रीकृष्ण ने जगत् को व्याप्त किया है।’ यहां श्रीकृष्ण के विराट का कारण भी शिव तत्व का बोध है। मैं शिव तत्व से अपरिचित हूं पर देवतंत्र का रसिया हूं। योग और तप से परिचित नहीं लेकिन भारत के मन के साथ मन मिलाते हुए ऐसे देवों के देव महादेव को नमस्कार करता हूं।
(लेखक, उत्तर प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष हैं।)