Friday, November 22"खबर जो असर करे"

सत्तारोहण की चाहत का मिलन चातुर्य

– सियाराम पांडेय ‘शांत’

23 जून,2023 की तारीख भारतीय राजनीति में कई मामलों में बेहद खास रही। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भारत और अमेरिका ही नहीं, दुनिया के 135 देशों को साधने का योग करते रहे। दुनिया के सबसे पुराने लोकतंत्र अमेरिका और सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत को मैत्री संबंधों में बांधने का मनोयोग करते रहे। इस बहाने दुनिया को सुंदर भविष्य और भविष्य को सुंदर दुनिया देने की अपनी मंशा का इजहार करते रहे। हालांकि यह सिलसिला अंतरराष्ट्रीय योग दिवस वाले दिन से ही शुरू हो गया था और उनकी मिस्र यात्रा की समाप्ति तक उनकी इन कोशिशों में कमी नहीं आने वाली।

एक ओर भारतीय जनता पार्टी ने जनसंघ के संस्थापक डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी का बलिदान दिवस राष्ट्रीय स्तर पर मनाया। एक देश, एक निशान, एक संविधान के उनके विचारों को याद किया, वहीं दूसरी ओर बिहार की राजधानी पटना को एक बार फिर राजनीतिक आंदोलन का गढ़ बनाने की कवायद हुई। लिट्टी-चोखा,गुलाब जामुन, जलेबी के लुत्फ के बीच देश के 15 दलों के कुल जमा 30 नेताओं ने भाजपा को शिकस्त देने का संकल्प लिया। देश में अघोषित आपातकाल होने का रोना रोया और घोषित आपातकाल लगाने वाली इंदिरा गांधी के पौत्र राहुल गांधी से दूल्हा बनने की अपील की। भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद की बिना दूल्हे की बारात वाली राजनीतिक टिप्पणी पर दरअसल यह मसखरी अंदाज वाला लालुई जवाब था लेकिन प्रधानमंत्री पद की हसरत पाले विपक्ष के तमाम नेताओं को महत्वाकांक्षा के सातवें आसमान से जमीन पर लाने का एक प्रयास भी था।लालू प्रसाद यादव कब चाहेंगे कि राजनीति में नीतीश कुमार का रुतबा इतना बढ़ जाए कि वह उनके परिवार के लिए भस्मासुर बन जाएं। वे ममता बनर्जी,अरविंद केजरीवाल पर भरोसा करें भी तो क्यों? उनके एक विरोध ने मुलायम सिंह यादव को प्रधानमंत्री बनने से रोक दिया था। ऐसे में अगर उन्होंने राहुल को शादी करने की सलाह दी है तो उसके अपने राजनीतिक निहितार्थ हैं। जिस लालू यादव ने आपातकाल में 20-22 माह की जेल यातना सही हो, जिसने आपातकाल के विरोध में अपनी एक बेटी का नाम मीसा रख दिया हो, वह लालू यादव इंदिरा परिवार के वंशज को अकारण आगे बढ़ाने का उपक्रम यूं ही तो नहीं करेंगे इसे भी समझने की जरूरत है।

तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख ममता बनर्जी की मानें तो पटना में विपक्ष की बैठक का हासिल बस इतना रहा है कि हम साथ हैं, मिलकर लड़ेंगे। अगली बैठक शिमला में होगी। यह तो तय है कि यह बैठक प्रधानमंत्री मोदी की देश-विदेश में बढ़ती लोकप्रियता से खौफ खाकर ही हो रही है। ममता बनर्जी तो यहां तक कहती नजर आईं कि मोदी सरकार अगर फिर सत्तारूढ़ हो गई तो देश में चुनाव होंगे ही नहीं। रही बात साथ होने की तो पश्चिम बंगाल में कांग्रेस के रवैये की आलोचना कर उन्होंने बहुत कुछ सुस्पष्ट कर दिया है कि एक पैर चल रहा इधर-उधर, दूसरा किसी के साथ है।

अध्यादेश मामले में अरविंद केजरीवाल को उमर अब्दुल्ला का जवाब या बैठक में शामिल होने के बाद प्रेस वार्ता से गायब होने की आम आदमी पार्टी के नेताओं की कवायद को साथ होने के मानक पर कितना खरा माना जाए। रही बात विपक्षी एकजुटता की तो कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे, वरिष्ठ कांग्रेस नेता राहुल गांधी, राकांपा प्रमुख शरद पवार, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन, दिल्ली के मुख्यमंत्री और आआपा संयोजक अरविंद केजरीवाल, झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन, समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव, महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे, राकांपा अध्यक्ष शरद पवार, जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती सहित कई विपक्षी नेता बैठक में शामिल तो हुए, उन्होंने परस्पर हाथ भी मिलाए लेकिन क्या दिल भी मिला पाए, विचारधारा के स्तर पर एक हो पाए, इसका जवाब अभी मिलना बाकी है। वैसे तो ये सारे नेता देश बचाने के लिए एकजुट हो रहे हैं लेकिन एक बड़ा सच यह भी है कि इनकी चिंता के केंद्र में अपनी परिवारवादी राजनीति का संरक्षण ही है।

पीडीपी प्रमुख महबूबा मुफ्ती कह रही हैं कि वे गांधी के मुल्क को गोडसे का मुल्क नहीं बनने देंगी लेकिन कश्मीर में जिस तरह उनके परिवार ने अलगाववादी ताकतों के साथ नरमदिली का परिचय दिया है, वह विचारधारा क्या गांधी जी की विचारधारा के पास तक फटकती भी है। बैठक हो और पोस्टर न लगें तो वैसे भी बात नहीं बनती। पटना की धरती इसका अपवाद कैसे हो सकती थी? वहां पोस्टर भी लगे और मोहब्बत की दुकान भी सजी। हर सवाल जवाब का आकांक्षी होता है। हर क्रिया की प्रतिक्रिया होती है। भाजपा पर आरोप लगे, उसे तानाशाह बताया जाए, देशविरोधी कहा जाए तो उसे भी तो कुछ कहना ही था। हिसाब बराबर करने वाले कुछ पोस्टर उसने भी टांग दिए। पटना में मोदी विरोधी पोस्टरों के बीच परिवार बचाओ और ठग्स ऑफ इंडिया के बैनर-पोस्टर भी लहराने लगे। तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम के स्टालिन ने तो इस बैठक को फासीवादी, निरंकुश शासन के खिलाफ युद्ध घोष तक कह दिया। ऐसे में सपा प्रमुख अखिलेश यादव कब चुप रहने वाले थे। उन्होनें देश बचाने के लिए संघर्ष की बात कह डाली। ममता बनर्जी ने तो यहां तक कहा कि रक्त बहता है तो बहने दो। हम लड़ेंगे।देश को बचाने के लिए लड़ेंगे। वैसे भी पश्चिम बंगाल में रक्त संघर्ष के बिना कोई चुनाव होता ही नहीं। तो क्या इस बार का चुनाव खून-खराबे के बीच लड़ा जाएगा।

भाजपा नेता अगर देश में आपातकाल थोपने वाली कांग्रेस से गलबहियां करने का विपक्ष पर आरोप लगा रहे हैं तो इसमें गलत क्या है? इस बैठक में शामिल उद्धव ठाकरे का महबूबा मुफ्ती और डी राजा के साथ बैठना तो यही बताता है कि यह विपक्ष का आपातकाल है। वह आपातकाल जिसमें न तो मर्यादा के लिए जगह होती है और न ही विचारधाराओं, सिद्धांतों और आदर्शों के लिए। उद्धव ठाकरे अगर अपने पिता बालासाहेब ठाकरे के अभिकथन पर गौर फरमाते तो वे कांग्रेस के पास जाना भी पसंद न करते। बाला साहेब ठाकरे ने अनेक अवसरों पर कहा था कि वह शिवसेना को कभी कांग्रेस नहीं बनने देंगे और जिस दिन कांग्रेस से हाथ मिलाना पड़े तो वह अपनी दुकान बंद कर देंगे।

आज हालात यह है कि उनकी दुकान किसी और ने नहीं, बल्कि उनके बेटे ने ही बंद कर दी है। यह बैठक तस्वीर सत्र तो हो सकती है लेकिन एकता का वॉयस नहीं बन सकती । जिस तरह गुहार जुटाकर मार संभव नहीं है, उसी तरह स्वार्थों को सामने रखकर एकता संभव नहीं है। सांप और नेवले में दोस्ती संभव नहीं है लेकिन अगर पानी सिर से ऊपर बहने लगे तो दोनों थोड़े समय के लिए निर्वैर होकर एक ही डाल पर बसेरा जरूर कर लेते हैं । केर और बेर के संबंध वैसे भी कब निभते हैं। कांग्रेस, माकपा, तृणमूल सबके बीच छत्तीस के रिश्ते हैं। अपने राजनीतिक परिक्षेत्र में कोई किसी का प्रवेश नहीं चाहता फिर तालमेल बनेगा भी तो किस तरह? और अगर इन दलों के बड़े नेता आपसी तालमेल कर भी लें तो क्या यह उनके दल के जमीनी कार्यकर्ताओं के साथ धोखा नहीं होगा? यह तो कुछ वही बात हुई कि दिल मिले न मिले हाथ मिलाते चलिए, अपना-अपना भ्रष्टाचार छिपाते चलिए।

रही बात नीतीश की तो वे इतने नासमझ भी नहीं हैं कि हारे हुए और राजनीति के बियावान से लगभग गायब हो चुके लोकसभा चुनाव में एक-दो सीटों की ताकत रखने वाले सीपीआई, सीपीएम, सीपीआई एमएल, पीडीपी, नेशनल कांफ्रेंस, आआपा या शिव सेना उद्धव के भरोसे कोई बड़ा राजनीतिक विकल्प तैयार करें। खुद उनकी पार्टी जनता दल यूनाइटेड की यह स्थिति नहीं की वह अपने बल पर लोकसभा चुनाव में दस सीटें भी जीत सके। भाजपा के साथ गठबंधन में भले ही जदयू की सीटें बढ़ गई थीं लेकिन अपने बूते चुनाव लड़कर 2014 में उन्हें लोकसभा की सिर्फ दो सीटें ही मिली थीं। विपक्ष की बैठक में शामिल 15 में से अधिकांश दल भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हुए हैं। सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय की कार्रवाई के भय से उनकी रात की नींद वैसे भी गायब है। डरा हुआ इंसान अपनी रक्षा तो कर नहीं पाता, देश की रक्षा क्या करेगा। देश को आज विश्वास से भरे जिम्मेदार और ईमानदार विजनरी नेता की जरूरत है। क्या आज का विपक्ष इस कसौटी पर खरा उतरता है। आत्ममुग्ध होना और बात है जबकि देश को आगे ले जाना और बात। बैठक पटना में हो या शिमला में, जब तक विपशी दल के अपने पैतरे होंगे, अपने स्वार्थ होंगे, तब तक सांझ की सुई सेंगर पर ही चलेगी।

प्रधानमंत्री नीतीश भी बना चाहेंगे और ममता भी, राहुल भी बनना चाहेंगे और केजरीवाल भी। नीतीश जब अपनी पार्टी की कम सीटों के बाद भी अनेक बार बिहार के मुख्यमंत्री बन सकते हैं तो दूसरे दल प्रधानमंत्री बनने का सपना क्यों नहीं पाल सकते? ऐसे में कौन किसके साथ है या हो सकता है, इसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है। कागज की नाव नदी में तैराई तो जा सकती है। उसके भविष्य को लेकर निश्चिंत नहीं रहा जा सकता। देश महत्वाकांक्षाओं से नहीं, नेकनीयती से चलता है। त्याग और समर्पण से चलता है। काश, देश के नेता इस सामान्य सी बात पर अमल कर पाते।

(लेखक, हिन्दुस्थान समाचार से सम्बद्ध हैं।)