– डॉ. रामकिशोर उपाध्याय
गीताप्रेस गोरखपुर को नि:स्वार्थ सेवा के सौ वर्ष पूर्ण होने पर केंद्र सरकार द्वारा गाँधी शांति पुरस्कार (2021) दिए जाने की घोषणा से देश-विदेश में रहने वाला हिन्दू समाज खुशी मना रहा है | ऐसा होना स्वाभाविक भी है, क्योंकि सैकड़ों वर्षों तक विदेशी आक्रान्ता हमारे धार्मिक ग्रंथों को नष्ट करते रहे। मुहम्मदवादियों ने अधिकांश मंदिरों और पुस्तकालयों को आग लगा दी तो अंग्रेजों ने गुरुकुल बंद कराके हमें अपनी जड़ों से काट दिया। स्थिति यहाँ तक पहुँच गई कि हिन्दुओं के देश में बाइबिल और कुरआन तो चाहे जहाँ से ले लो किन्तु हिन्दू धर्म ग्रंथों जैसे वेद, उपनिषद्,पुराण आदि की बात मत करो। भारतीय जीवन का आधार या भारत की पहचान कहे जाने वाले ग्रन्थ गीता और रामायण तक जनसाधारण को मिल पाना कदाचित असंभव जैसा हो गया था। ऐसे कठिन समय में श्री जयदयाल गोयनका और श्री हनुमान प्रसाद पोद्दार जैसे महापुरुषों ने सन 1923 में गीता प्रेस गोरखपुर की स्थापना की।
इस प्रेस ने अनेक कठिन और प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करते हुए पूरे देश को बिना लाभ कमाए अत्यंत कम मूल्य पर सनातन ग्रन्थ उपलब्ध कराने का कार्य आरंभ किया। अनेक स्वामी रामसुख दास जी जैसी महान विभूतियों ने बिना रॉयल्टी लिए कठिन साधना द्वारा महान ग्रंथों के अनुवाद प्रस्तुत किए। आज लगभग प्रत्येक आस्तिक हिन्दू घर में गीता, रामायण, हनुमान चालीसा सहित अनेक धार्मिक पुस्तकें या इनमें से कोई एक पुस्तक तो अवश्य ही पहुँच चुकी है। इस व्यावसायिक युग में भी यह प्रेस बिना किसी चंदे, सरकारी सहायता और बिना विज्ञापन के सनातन धर्म की सेवा में लगी हुई है। गीता प्रेस के कल्याण के अंक तो मानव जाति के लिए श्रेष्ठ ज्ञान निधि हैं। इस प्रेस द्वारा केवल धार्मिक ही नहीं अपितु बच्चों और महिलाओं के लिए भी अनेक शिक्षाप्रद पुस्तकें प्रकाशित की जाती हैं।
पिछले सौ वर्षों से करोड़ों हिन्दुओं की सेवा करने वाली, गीता के महान संदेशों को जन-जन तक पहुँचाने वाली इस प्रेस को जैसे ही गाँधी शांति पुरस्कार देने की घोषणा हुई तो कुछ विघ्न संतोषियों को यह बात हजम नहीं हुई। यह कैसी असहिष्णुता है कि जीवन पर्यंत ईसाइयत का प्रचार करने वाली और सेवा की आड़ में धर्मान्तरण कराने वाली रोमन कैथोलिक नन मदर टेरेसा को देश का सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न मिलने पर जो लोग नाच रहे थे वे गीता प्रेस के सम्मानित होने पर छाती पीट रहे हैं। आखिर ये लोग भारत में भारतीय जीवन मूल्यों का प्रचार करने वाली संस्था के शत्रु क्यों बने हुए हैं? जयराम रमेश जैसे लोग गीता प्रेस गोरखपुर का विरोध करके न केवल कांग्रेस की जड़ों में मठ्ठा डालने का काम कर रहे हैं अपितु स्वयं की भी फजीहत करा रहे हैं।
ध्यान रहे यह संस्था कांग्रेस, भाजपा, सपा या किसी सरकार से कोई सहायता नहीं लेती। उसकी स्वतंत्रता और स्वीकार्यता सभी दलों के लोगों में है। यह संस्था विश्व का कल्याण करने वाले, संसार को अच्छाई और सच्चाई का मार्ग दिखाने वाले साहित्य का प्रकाशन और वितरण करने का काम करने वाली महान संस्था है।
गीता प्रेस गोरखपुर का विरोध एक गहरे षड्यंत्र का हिस्सा है। चूँकि कम्युनिस्ट लोग भारतीय धर्म, भारतीय संस्कृति और भारतीय जीवन मूल्यों के धुर विरोधी हैं इसलिये वे इसके जानी दुश्मन हैं। धर्मान्तरण में संलग्न ईसाई और इस्लामिस्ट लोगों का विरोध तो जगजाहिर है किन्तु कुछ कांग्रेसी नेता इस विरोध का कलंक अपने और अपनी पार्टी के माथे क्यों मढ़ना चाहते हैं? प्रत्येक हिन्दू कांग्रेसी कार्यकर्त्ता के लिए यह चिंता का विषय है। क्या केवल वोट के लिए? जयराम रमेश जिस पुस्तक की आड़ में गीता प्रेस को गाँधीजी का विरोधी सिद्ध करना चाहते हैं वास्तव में वह पुस्तक एक झूठ का पुलिंदा है। कम्युनिस्ट पत्रकार अक्षय मुकुल की उस पुस्तक का नाम है ‘गीता प्रेस एंड द मेकिंग ऑफ हिन्दू इण्डिया।’ इस पुस्तक के शीर्षक से ही स्पष्ट है कि लेखक के भीतर हिन्दू शब्द के प्रति कितनी नफरत है। उसे विश्व के कल्याण के साहित्य में से हिन्दू राष्ट्र बनता दिखाई दे रहा है। कम्युनिस्ट लोग जानते हैं कि यह प्रेस नि:स्वार्थ भाव से हिन्दू धर्म और मानवता की सेवा में लगी हुई है। यह गीता, रामायण, उपनिषद जैसे लोक कल्याण और विश्व शांति के महान ग्रंथों को सस्ते मूल्य पर घर-घर पहुँचा कर भारतीय समाज को उसकी जड़ों से जोड़े हुए है। इसलिए पहले इसे बदनाम करो फिर विवादित करो और बाद में प्रतिबंधित कराने की मांग करो। जैसे भी हो इस महान कार्य को बाधित करो इसलिए यह सब सोची-समझी रणनीति के अनुसार किया जा रहा है।
जैसा कि कम्युनिस्ट लेखक फर्जी इतिहास लिखने और झूठे नेरेटिव गढ़ने में सिद्धहस्त होते हैं ठीक वैसे ही इस पुस्तक में कई फर्जी और काल्पनिक तथ्यों का सहारा लिया गया है। इस पुस्तक में कहा गया है कि गाँध जी की मृत्यु पर कल्याण के अंकों में गाँधीजी को कोई स्थान नहीं दिया गया। डॉ. संतोष कुमार तिवारी ने एक आलेख में इस आरोप को निराधार सिद्ध करते हुए लिखा है कि उस दिन शाम तक (गांधीजी की हत्या होने से पूर्व) ‘कल्याण’ की बहुत-सी प्रतियाँ भेजी जा चुकी थीं। शाम को लगभग 5 बजे गाँधीजी की दुखद हत्या हुई इसके बाद कल्याण की शेष प्रतियाँ रोक कर सभी में तीन पेज अलग से जोड़कर पाठकों को भेजे गए। इनमें पहले पेज पर गाँधीजी का चित्र था, शेष दो पृष्ठों पर गाँधीजी को श्रद्धांजलि दी गई थी। इनमें से एक श्रद्धांजलि स्वयं हनुमान प्रसाद पोद्दार जी ने लिखी थी।
डॉ. तिवारी ने इस पुस्तक के अनेक आरोपों को झूठा सिद्ध कर दिया है। जैसा कि मैंने पूर्व में भी कहा है कि कम्युनिस्ट झूठे नेरेटिव सेट करने में माहिर होते हैं इसलिये इस पुस्तक में भी ऐसे कई झूठ रचे गए हैं। पूरी दुनिया जानती है कि गीता प्रेस को खड़ा करने में अनगिनत महापुरुषों ने अपना जीवन होम दिया। किसी से विज्ञापन मत लेना, यह सुझाव तो स्वयं गाँधीजी ने गीता प्रेस को दिया था। जिसका आज तक पालन किया जा रहा है। गीता प्रेस के न्यास बोर्ड ने स्पष्ट कर दिया है कि प्रेस केवल सम्मान ग्रहण करेगी एक करोड़ की राशि नहीं, जबकि कुछ लोग सम्मान लौटा देते हैं राशि नहीं।
आज गीता प्रेस गोरखपुर जो कि गाँधीजी की प्रिय पुस्तक गीता, गाँधी जी के इष्ट भगवान राम की रामायण घर-घर पहुँचाने का कार्य कर रही है, उस प्रेस को गाँधी शांति पुरस्कार देने का विरोध ओछी मानसिकता का परिचायक है। गीता प्रेस गोरखपुर का कार्य स्तुत्य, अभिनंदनीय एवं अनुकरणीय है। पूरा भारतवर्ष उसका ऋणी है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)