– गिरीश्वर मिश्र
आज के सामाजिक जीवन को देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि हर कोई सुख, स्वास्थ्य, शांति और समृद्धि के साथ जीवन में प्रमुदित और प्रफुल्लित अनुभव करना चाहता है। इसे ही जीवन का उद्देश्य स्वीकार कर मन में इसकी अभिलाषा लिए आत्यंतिक सुख की तलाश में सभी व्यग्र हैं और सुख है कि अक्सर दूर-दूर भागता नजर आता है। आज हम ऐसे समय में जी रहे हैं जब हर कोई किसी न किसी आरोपित पहचान की ओट में मिलता है। दुनियावी व्यवहार के लिए पहचान का टैग चाहिए पर टैग का उद्देश्य अलग-अलग चीजों के बीच अपने सामान को खोने से बचाने के लिए होता है। टैग जिस पर लगा होता है उसकी विशेषता से उसका कोई लेना-देना नहीं होता। आज हमारे जीवन में टैगों का अम्बार लगा हुआ है और टैग से जन्मी इतनी सारी भिन्नताएं हम सब ढोते चल रहे हैं। मत, पंथ, पार्टी, जाति, उपजाति, नस्ल, भाषा, क्षेत्र, इलाका समेत जाने कितने तरह के टैग भेद का आधार बन जाते हैं और हम उसे लेकर एक दूसरे के साथ लड़ने पर उतारू हो जाते हैं। हम भूल जाते हैं कि टैग से अलग भी हम कुछ हैं और इनसे इतर हमारा कोई वजूद है। पर बाहर दिखने वाला प्रकट रूप ही सब कुछ नहीं होता। कुछ आतंरिक और सनातन स्वभाव भी हैं जो जीवन और अस्तित्व से जुड़ा होता है। ऊपरी पहचान वाली खंडित दृष्टि निरन्तर असंतोष और अभाव के टीस के साथ कचोटने वाली होती है।
ऐसे में यह बात अत्यंत महत्व की हो जाती है कि हम अपने आप को किस तरह देखते और पहचानते हैं। जब हम आरोपित पहचान (या टैग) के हिसाब से चलते हैं तो हमारी आशाएं-आकांक्षाएं भी आकार लेती हैं। उन्हीं के अनुरूप हम दूसरों के साथ बर्ताव भी करते चलते हैं। इस जद्दोजहद में आभासी , अस्थायी और संकुचित आधार वाली जीवन शैली अपनाते हैं और ऐसी भागमभाग वाली दौड़ में शामिल हो जाते हैं जिसके चलते घोर प्रतिस्पर्धा जन्म लेती है। एक दूसरे से आगे बढ़ने के चक्कर में हर कोई दूसरे का अतिक्रमण करने को तैयार है। इस तरह वैमनस्य की नींव पड़ती है और बड़ी जल्दी ही आक्रोश और हिंसा का रूप लेने लगती है। ऐसे में अनिश्चय, असंतोष और पारस्परिक तुलना के कारण तनाव और चिंता के भाव लगातार डेरा डाले रहते हैं। आज बड़ी संख्या में लोग अवसाद ( डिप्रेशन ) और कई तरह की दूसरी अस्वस्थ मनोदशाओं के शिकार हो कर मनोरोगियों की श्रेणी में पहुंचने लगे हैं। मानसिक विकारों की सूची लम्बी होती जा रही है और अमीर हो या गरीब सभी उसमें शामिल हो रहे हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन की रपट के अनुसार आज विकसित और विकासशील दोनों तरह के देश इस तरह की भयावह हो रही परिस्थिति की ओर आगे बढ़ रहे हैं। गौर तलब है कि मानसिक रोगों की बहुतायत भौतिक जगत से कहीं ज़्यादा हमारे मानसिक जगत की बनती-बिगड़ती बनावट और बुनावट पर निर्भर करती है। इसलिए उसकी देखभाल ज़रूरी लगती है। इसके लिए व्यक्ति को अपने जीवन की प्रक्रिया को सतत नियमित करते रहने की ज़रूरत है। सतही तौर पर देखें तो जीवन एक स्वतःचालित यांत्रिक प्रक्रिया जैसा लगता है जो किसी चाभी भरे खिलौने की तरह चलता रहता है पर यह तुलना आंशिक रूप से ही ठीक बैठती है क्योंकि जीवन का एजेंडा स्वाभाविक रूप से विकसनशील होता है। अर्थात वह पूरी तरह पूर्वनिर्धारित न हो कर देश-काल के सापेक्ष्य उत्तरोत्तर नए-नए आकार लेता चलता है। उसमें सर्जनात्मक संभावना का बीज छिपा रहता है । पर इन सबसे बड़ी बात यह है कि इस पूरी परियोजना में स्व या आत्म की भी बड़ी नियामक और निर्णायक भूमिका होती है जो स्वयं में एक सृजनशील रचना है ।
दुर्भाग्य से बाहर की दुनिया का प्रभाव इतना गहरा और सबको ढंक लेने वाला होता है कि वही हमारा लक्ष्य या साध्य बन जाती है और उसी से ऊर्जा पाने का भी अहसास होने लगता है । हम अपनी अंतश्चेतना को भूल बैठते हैं । और यह भी कि बाह्य चेतना और अंतश्चेतना परस्पर सम्बन्धित हैं। मनुष्य खुद को विषय और विषयी ( सब्जेक्ट और ऑब्जेक्ट ) दोनों रूपों में ग्रहण कर पाता है। मनन करने की क्षमता का माध्यम और परिणाम आत्म-नियंत्रण से जुड़ा हुआ है । भारतीय परम्परा में आत्म-नियंत्रण पाने के उपाय के रूप में अभ्यास और वैराग्य की युक्तियाँ सुझाई गई है। इसमें अभ्यास आंतरिक है वैराग्य बहिर्मुखी। अर्थात् अंदर और बाहर दोनों का संतुलन होना आवश्यक है। अभ्यास का आशय योग का अभ्यास है जो हमें अपने मानसिक जगत को शांत और स्थिर रखने के लिए ज़रूरी है। दूसरी ओर बाह्य जगत के साथ अनुबंधित होने से बचाने के लिए वैराग्य ( या अनासक्ति ) भी अपनानी होगी।
वस्तुतः दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और एक के बिना दूसरा सम्भव भी नहीं है। बाहर की दुनिया ही यदि अंदर भी भरी रहे तो अंतश्चेतना विकसित नहीं होगी । इसलिए अभ्यास (योग) वैराग्य का सहायक या अनुपूरक समझा जाना चाहिए। इसके लिए विवेक की परिपक्वता चाहिए जिसके लिए जगह बनानी होगी । आज के दौर में अन्तश्चेतना और बाह्य चेतना दोनों की ओर ध्यान देना ज़रूरी है । आनंद की तलाश तभी पूरी हो सकेगी जब हम अपने ऊपर नियंत्रण करें और परिवेश के साथ समर्पण के साथ उन्मुख न हों बल्कि संतुलित रूप से जुड़ें । पूर्णता अंदर और बाहर की दुनिया के बीच संतुलन बनाने में ही है।
महर्षि पतंजलि यदि योग को चित्त वृत्तियों के निरोध के रूप में परिभाषित करते हैं तो उनका आशय यही है अपने आप को बाहर की दुनिया में लगातार हो रहे असंयत बदलावों को अनित्य मानते हुए अपने मूल अस्तित्व को उससे अलग करना क्योंकि वे बदलाव और ‘टैग’ तो बाहर से आरोपित हैं आत्म पर आरोपित हैं न कि (वास्तविक) आत्म हैं। आदि शंकराचार्य ने इन्हें उपाधि कहा है जो आती जाती रहती है। मिथ्या किस्म की चित्त-वृत्तियाँ जिनको महर्षि पतंजलि ने क्लिष्ट चित्त-वृत्ति की श्रेणी में रखा है भ्रम और अयथार्थ को जन्म देती हैं । तब हम उनके प्रभाव में स्वयं को वही ( भ्रम रूप/टैग ! ) समझने लगते हैं। इससे बचने का उपाय योग हैं और उससे द्रष्टा अपने स्वरूप में वापस आ पाता है। योग द्वारा आत्म-नियंत्रण स्थापित होना हमारी घर वापसी की राह है । तब हम अपने में स्थित हो पाते हैं यानी स्वस्थ होते हैं । योग को अपनाना अपने समग्र अस्तित्व की तलाश है जो हमारे उत्कर्ष का का मार्ग प्रशस्त करता है।
आज तनाव, चिंता, अवसाद, हिंसा, आत्म हत्या जैसे मनोदैहिक ( साइको सोमैटिक) किस्म के मानसिक विकार तेजी से बढ रहे हैं अब ई-व्यापार , ई-प्रबंधन और ई-सीखना छाता जा रहा है। इन सब के बीच जीवन शैली का प्रश्न प्रमुख होता जा रहा है। ऐसे में उनके शरीर और मन को दृढ बनाना और रोग प्रतिरोध की क्षमता का विकास करना शिक्षा का अनिवार्य अंग बनाना जरूरी होगा। ऐसे ही प्रकृति विजय की जगह पर्यावरण की पुन:स्थापना, सहयोगी जीवन शैली, और स्वस्थ शरीर को साधन के रूप में ढालना जरूरी होगा। धन, छवि और प्रसिद्धि से मिलने वाली संतुष्टि ज्यादा दिन नहीं ठहरती और हमेशा असंतुष्टि और अभाव की पीड़ा बनी रहती है।
मन में खालीपन और बेचैनी बनी रहती है। इस पश्चिमी पूंजीवाद के विपरीत समग्रता में जीवन जीने की भारतीय दृष्टि अहंकार और मोह से परे वास्तविक स्व या आत्म की ओर चलने को प्रेरित करती है। इसमें सीमित भौतिक स्व के अहंकार की सीमाओं से छुटकारा पाने की व्यवस्था है । जैसा कि पंचकोश की सुपरिचित अवधारणा में कहा गया है मनुष्य की रचना कई स्तरों वाली है । अन्नमय कोश सबसे बाहर की सतह है जिसके बाद प्राणमय कोश आता है, विज्ञान मय कोश आता है, तब मनोमय कोश और सबके बाद है आनंदमय कोश । इन सबसे मिल कर सम्पूर्ण अस्तित्व की रचना होती है। इसमें भौतिक स्तर के जीवन का नकार या तिरस्कार नहीं है पर वही सर्वस्व भी नहीं है। हमारे बहुत सारे कष्ट इसीलिए उपजते हैं कि हम अपने को इसी शरीर के स्तर तक सीमित मान लेते हैं।
हालांकि तनिक विचार से ही यह बात स्पष्ट हो जाती है कि शरीर हमारा है पर हम शरीर मात्र नहीं हैं। मृत्यु के बाद शरीर या देह तो रहता है पर हम या देही नहीं रहता । इस तरह शरीर की सीमा को समझने से संजीदगी भी आती है और स्वयं को चैतन्य से जोड़ कर पूर्णता, व्यापकता का अहसास भी होता है। महर्षि पतंजलि के आठ चरणों वाले योग यही मानता है कि बाह्य विषयों के साथ अतिआसक्ति से मानसिक वृत्तियों ( प्रमाण या ज्ञान प्राप्ति, विपर्यय या मिथ्या ज्ञान , विकल्प या कल्पित ज्ञान, निद्रा, स्मृति) यदि यम (सत्य, अहिंसा,अपरिग्रह, अस्तेय , ब्रह्मचर्य), नियम( शौच अर्थात स्वच्छता , संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान) आसन , प्राणायाम ( श्वास प्रश्वास का नियमन ), प्रत्याहार ( इंद्रियों का विषयों से खीच कर चित्त में लगाना) , धारणा (चित्त को किसी वस्तु पर ठहराना) तथा ध्यान (ठहरे हुए चित्त को स्थिर रखना) , से होते हुए समाधि की यात्रा की जाय तो अनावश्यक मोह से छ्टकारा मिल सकेगा और अपने वास्तविक स्वरूप का अनुभव हो सकेगा । तब जीवन जीते हुए ही अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश जैसे क्लेशों से मुक्त हुआ जा सकेगा। हां इसके लिए अभ्यास और वैराग्य दोनों की जरूरत पड़ती है।
आज योग के प्रति उत्सुकता बढ़ी है पर या तो उसे सिर्फ आसनों में समेट लिया जाता है या फिर साधारण व्यक्ति की पहुंच से दूर कुछ अलौकिक बना दिया जाता है। जैसा कि योग के विभिन्न चरणों से स्पष्ट है योग जीवन के सभी पक्षों से जुड़ा हुआ है। उसके यम पूरी तरह से सामाजिक जीवन को सम्बोधित करते हैं तो नियम निजी जीवन को। आसन और प्राणायाम शरीर को साधते हैं जिसमें स्नायु मंडल भी शामिल है। ध्यान के बाद अंतर्यात्रा शुरू होती है । इस तरह योग जीवन जीने की मैनुअल है । हमारी स्कूली शिक्षा में बौद्धिक कार्य पर बहुत अधिक बल दिया जाता है ।
मानव मूल्यों और चरित्र निर्माण का जिक्र भी आता है पर अपने को समझने, अपने शरीर और मन को जानने समझने के लिए बहुत कम अवसर रहता है। आज के तनाव और चिंता के दौर में जीवन कौशल का महत्व बहुत बढ गया है। योग के विभिन्न पक्षों की शिक्षा और अभ्यास न केवल शरीर और मन को स्वस्थ और संतुलित रखेगा बल्कि अध्ययन और सर्वांगीण विकास का मार्ग भी प्रशस्त करेगा। इसलिए इसका क्रम बद्ध पाठ्यक्रम स्कूली शिक्षा के सभी स्तरों पर अनिवार्य रूप से लागू करने की आवश्यकता है। देश विदेश में योग का आधुनिक वैज्ञानिक दृष्टि से अध्ययन हो रहा है और वह किसी धर्म विशेष से नहीं सारी मानवजाति की अनमोल विरासत है जिसका शिक्षा में उपयोग भावी पीढ़ी के निर्माण में लाभकर होगा। आज जब भारत के लिए नई शिक्षा नीति बन रही है तो योग को उचित स्थान देने का सकारात्मक दूरगामी परिणाम होगा। वस्तुत: शिक्षा की पूर्णता और समग्रता के लिए योग का प्रावधान एक अनिवार्य कदम होगा।
(लेखक, महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय वर्धा के पूर्व कुलपति हैं।)