– आर.के. सिन्हा
डॉलर के मुकाबले भारतीय रुपये का लगातार अवमूल्यन होना और देश के हजारों युवाओं के विदेशों में पढ़ने के लिए जाने के आपसी संबंधों को समझना जरूरी है। यकीन मानिए कि इनके बाहर जाने से भी देश की अमूल्य विदेशी मुद्रा का खजाना घटता है। वजह यह है कि जब ये देश से बाहर जाते हैं, तब इन्हें बैंकों से डॉलर लेकर विदेशी शिक्षण संस्थानों में दाखिला लेना होता है। अगर बात चालू साल की करें तो मार्च तक करीब 1.33 लाख भारतीय विद्यार्थी दुनिया के अलग-अलग देशों में पढ़ने के लिए निकल गए। आजकल आप दिल्ली, मुंबई, बेगलुरु और उन हवाई अड्डों में विदेशों में पढ़ने के लिए जाने वाले नौजवानों को खूब देख सकते हैं, जहां से विदेशों के लिए विमान उड़ान भरते हैं।
संसद में हाल ही में बताया गया कि इस साल उच्च शिक्षा ग्रहण करने के इरादे से 1.33 लाख से कुछ अधिक ही बच्चे देश से बाहर चले गए। अगर बात 2021 की करें तो तब यह आंकड़ा 4.44 लाख के आसपास था। साल 2020 में 2.59 युवा देश से बाहर गए थे पढ़ने के लिए। भारत से साल 2018-19 के दौरान 6.20 लाख विद्यार्थी पढ़ने के लिए देश से बाहर गए। साल 2017-18 में यह आंकड़ा 7.86 लाख रहा। भारतीय युवाओं की पहली पसंद तो अमेरिका तथा कनाडा के शिक्षण संस्थान हैं। वे दूसरे अनेक देशों में भी जाते हैं। अभी कुछ माह पहले हम देख चुके हैं कि रूस-यूक्रेन जंग के कारण भारत के हजारों विद्यार्थी वहां फंस गए थे। ये वहां मेडिकल और दूसरे कोर्स कर रहे हैं। अब सवाल यह है कि हम इस तरह का इंफ्रास्ट्रक्चर अपने देश में ही क्यों नहीं विकसित कर लेते ताकि हमारे कम से कम युवा बाहर पढ़ने के लिए जाएं। इनकी वजह से देश को हर साल अरबों रुपये की विदेशी मुद्रा व्यय करनी पड़ती है। कहना न होगा कि अगर हमारे यहां श्रेष्ठ मेडिकल, इंजीनियरिंग और दूसरे कोर्सों की डिग्री दिलवाने वाले पेशेवर कॉलेज खुल जाएं तो इन युवाओं को बाहर जाने से कुछ हद तक तो रोका ही जा सकता है।
एक तरफ हमारा एक्सपोर्ट घट रहा है और दूसरी तरफ हमारा विदेशी मुद्रा का खजाना भी तेजी से खाली हो रहा है। इसके दो बड़े कारण है- पहला, कच्चे तेल का आयात। दूसरा, युवाओं का विदेशों में पढ़ने के लिए जाना। अब हमारे सामने विकल्प क्या है। देखिए कच्चे तेल के भाव पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है। पर हम विदेशों का रुख करने वाले छात्रों को बाहर जाने से रोकने के उपाय कर ही सकते हैं। इस बीच हमे चाहें तो यह संतोष कर सकते हैं कि भारत को आईटी सेक्टर में निर्यात से भारी-भरकम विदेशी मुद्रा हासिल हो जाती है। भारत के निर्यात और जीडीपी में आईटी सेक्टर का योगदान लगातार बढ़ रहा है।
भारत के कुल निर्यात में सर्विस सेक्टर निर्यात का योगदान 40 फीसदी के करीब है। सर्विस एक्सपोर्ट में 50 फीसदी योगदान केवल आईटी सेक्टर का है। इधर कुछ दशकों से खाड़ी के देशों में बसे भारतीय कमाल कर रहे हैं। वे हर साल अरबों रुपये स्वदेश भेजते हैं। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत को सन 2021 के दौरान विदेशों में बसे प्रवासी भारतीयों तथा अन्य रास्तों से से 87 बिलियन डॉलर मतलब यानी करीब 87 अरब रुपये प्राप्त हुए। बेशक इस राशि से देश में विकास परियोजनाओं को लागू करने में मदद मिलती है। जितना पैसा अपने घर यानी भारत में भारतीय भेजते हैं, उतना अन्य किसी देश के नागरिक नहीं भेजते। यहां यह बताना जरूरी है कि चीन के नागरिक भी अपने देश में भारत से कम पैसा भेजते हैं। खाड़ी के देशों जैसे बहरीन, कुवैत, ओमन, कतर, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ( यूएई) में बसे भारतीय हर साल बहुत मोटी राशि देश में भेजते हैं। इन देशों में भारतीय छोटी-मोटी नौकरी से लेकर बड़ा बिजनेस भी कर रहे हैं।
भारत चाहे तो मेडिकल टूरिज्म के माध्यम से विदेशी मुद्रा कमा सकता है। हमारे देश में मेडिकल क्षेत्र से जुड़े विशेषज्ञों को मेडिकल टूरिज्म के क्षेत्र में लंबी सफल छलांग लगाने के उपाय तलाश करने होंगे। मेडिकल टूरिज्म का सालाना अरबों डॉलर का कारोबार है। इस पर भारत को अपनी पकड़ मजबूत बनानी होगी। इस क्षेत्र में भारत के सामने तमाम संभावनाएं हैं। पर संभावनाएं उसी स्थिति में हैं जब हम विदेशों से आने वाले रोगियों को बेहतरीन सुविधाएं दें और उनका श्रेष्ठ इलाज करें। हमें इसके लिए डाक्टरों और नर्सों के व्यवहार और उनके प्रशिक्षण में सुधार लाना होगा। भारत में अमेरिका, जापान, यूरोप या सिंगापुर की तुलना में सस्ते इलाज, उत्तम चिकित्सा तकनीकों और उपकरणों की उपलब्धता के चलते विदेशी इलाज के लिए आते हैं। उन्हें यहां पर भाषा की समस्या से भी जूझना नहीं पड़ता। यहां पर अंग्रेजी बोलने वाले हर जगह मिल ही जाते हैं। यहां के अस्पतालों में डाक्टर, नर्स और बाकी स्टाफ भी अंग्रेजी बोल लेता है। यानी विदेशों से आए रोगियों के लिए भारत एक शानदार स्थान है। यदि कमी है तो साफ-सफाई और मरीजों के प्रति मधुर और सवेदनशील व्यवहार की।
साल 2015 में 2.34 लाख और 2016 में 4.27 लाख विदेशों से रोगी इलाज के लिए भारत आए। इनमें बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आने वाले रोगियों का आंकड़ा सर्वाधिक है। अरब की खाड़ी देशों के शेखों के लिए भी मुंबई पसंदीदा जगह है। यह प्रमाणिक जानकारी भी संसद में ही दी गई थी। अफगानिस्तान से साल 2017 में 55,681 रोगी इलाज के लिए भारत आए। इन दोनों पड़ोसी देशों के साथ-साथ,भारत में ओमन, इराक, मालदीव, यमन, उज्बेकिस्तान, सूडान वगैरह से भी रोगी आ रहे हैं। अगर भारत-पाकिस्तान के संबंध सुधर जाएं तो हर साल सरहद के उस पार से भी हजारों रोगी हमारे यहां इलाज के लिए आने लगेंगे। कहने का अर्थ यह है कि मेडिकल टूरिज्म के रास्ते से हम तगड़ी विदेशी मुद्रा अर्जित कर सकते हैं। जब हमारा विदेशी मुद्रा भंडार खाली हो रहा है और हमारा रुपया डॉलर के मुकाबले कमजोर होता जा रहा है तो हमें विदेशी मुद्रा को कमाने के नए-नए विकल्पों पर काम तो करना ही होगा।
(लेखक, वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं।)