Friday, November 22"खबर जो असर करे"

जनगणना की प्रक्रिया पारदर्शी होते ही कतिपय भ्रांतियां स्वतः समाप्त हो जाएंगी

– कमलेश पांडेय

लोकतंत्र में संख्या बल का अपना महत्व होता है। 51 वोट का मतलब जीत और 49 वोट का मतलब हार से लगाया जाता है। भारत में बहुदलीय व्यवस्था है, इसलिए यहां पर 30 वोट का मतलब भी जीत हो जाता है, बशर्ते कि 70 वोट की संख्या विभिन्न दलों में विभाजित हो जाये और सबके हिस्से में 29 या उससे कम वोट आये। वैसे तो मतदाता सूची तैयार करना केंद्रीय चुनाव आयोग का कार्य है, लेकिन मतदाताओं के संख्या बल और उसके विकास पायदान की सटीक जानकारी के लिए लोग जनगणना के आंकड़ों पर निर्भर रहते हैं। लेकिन जब ये आंकड़े ही सटीक नहीं बन पाएं, तो किन्तु-परन्तु होना स्वाभाविक है। मोदी सरकार इस कड़वी हकीकत से अवगत हो चुकी है और यदि सबकुछ ठीक-ठाक रहा तो वह जल्द ही तमाम तरह के आंकड़ों की बाजीगरी खत्म करवा देगी।

इस बात का संकेत केन्द्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री अमित शाह ने 22 मई को नई दिल्ली में जनगणना भवन का उद्घाटन करने के दौरान दिया। इस मौके पर उन्होंने जो कुछ महत्वपूर्ण बातें बताई हैं, उस पर गौर किये जाने की जरूरत है। क्योंकि उन्होंने जिन मुद्दों को उठाने का साहस दिखाया है, वह सबमें नहीं हो सकता है। उन्होंने जन्म और मृत्यु पंजीकरण के लिए वेबपोर्टल, जियोफेंसिंग के साथ अपग्रेडेड एसआरएस मोबाइल एप्लीकेशन और जनगणना प्रकाशनों की ऑनलाइन बिक्री के वेबपोर्टल का जो शुभारंभ किया है, उन सबका अपना नीतिगत महत्व है। यदि इन सबका सम्यक प्रयोग प्रशासनिक व्यवस्था के हित में किया गया, तो बहुत सारे आँकड़े गत विरोधाभास स्वतः समाप्त हो जाएंगे।

इस अवसर पर उन्होंने जनगणना संग्रह (1981 से आगामी जनगणना) का भी विमोचन किया। अमित शाह ने स्पष्ट कहा कि “जन्म और मृत्यु का पंजीकरण किसी भी देश के लिए बहुत महत्वपूर्ण है और ये दो जनगणनाओं के बीच विकास की योजनाओं को बनाने में मदद करता है। इसलिए, अब मोदी सरकार इस प्रक्रिया को ऑनलाइन कर आसान बना रही है। आज 1981 से अभी तक की सभी जनगणनाओं के इतिहास को एक पुस्तक में संकलित करके प्रकाशित किया गया है।

उन्होंने कटाक्ष करते हुए कहा कि “योजनाएं बनती रहीं, लक्ष्य तय होते रहे, लेकिन सबको घर देने का लक्ष्य तय करने का साहस नहीं था, क्योंकि किसी को नहीं पता था कि इसके लिए कितना बजट चाहिए। जनगणना का उपयोग, सटीकता, ऑनलाइन उपलब्धता और प्लानिंग तथा जनगणना के बीच सेतु के अभाव में ये सब पहले नहीं हो सका। इसलिए मोदी सरकार ऐसी व्यवस्था करने जा रही है कि जैसे ही एक व्यक्ति 18 वर्ष का होता है, चुनाव आयोग उससे सूचना लेकर उसका वोटर कार्ड बना देगा। इसी प्रकार किसी की मृत्यु होने पर जनगणना रजिस्ट्रार से चुनाव आयोग के पास इसकी सूचना जाएगी और फिर प्रक्रियानुसार उसका नाम मतदाता सूची से हटा लिया जाएगा। इस प्रकार की जनगणना के प्रयास से जन्म और मृत्यु का रजिस्ट्रेशन और जनगणना कम्प्लीट हो सकेगी जिससे देश को बहुआयामी फायदे होंगे। क्योंकि जनगणना का डेटा विकास की मूल योजना बनाने में और वंचितों, शोषितों को आधारभूत सुविधाएं प्रदान करने में सहायक होता है।

देखा जाए तो केंद्रीय गृहमंत्री ने सही मुद्दे को छुआ है। अपने देश में शहरी वार्ड और ग्रामीण ग्राम पंचायत जैसी निचली प्रशासनिक इकाई से लेकर नगर पंचायत, नगरपालिका, नगर निगम, तहसील, जनपद, मंडल, प्रांत और राष्ट्र स्तरीय सर्वोच्च प्रशासनिक इकाई/सम्बन्धित विभाग हैं, जिसकी मॉनिटरिंग करने के लिए प्रशासनिक अधिकारी गण व कर्मचारी गण और उनपर नजर रखने के लिए पार्षद/मुखिया से लेकर प्रमुख, जिला पंचायत अध्यक्ष, विधायक, सांसद, मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री, उनके मंत्रीगण सरीखे राजनीतिक जनप्रतिनिधिगण भी मौजूद हैं।
खास बात यह कि सबके वेतन-भत्ते तक सुनिश्चित हैं। इसलिए यदि दृढ़ प्रशासनिक इच्छा शक्ति हो तो कोई भी आंकड़ा तैयार करना मुश्किल नहीं है।

लेकिन जब पक्ष-विपक्ष के दिल में खोट हो, पारस्परिक शह-मात के खेल चल रहे हों और प्रशासनिक प्रतिनिधि सही आंकड़ों को तैयार करने या करवाने में पक्षपात या किन्तु-परन्तु करते हों, तो फिर वही होता है, जो पिछले 70 सालों तक हुआ या होता आ रहा है। कहने को तो राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर तक मौजूद है, लेकिन हकीकत यह है कि त्रिस्तरीय पंचायती राज चुनावों, विधानसभा चुनावों, लोकसभा चुनावों में बहुतेरे लोगों के नाम मतदाता सूची में नहीं मिलते और इस बड़ी लापरवाही के लिए किसी का उत्तरदायित्व भी सुनिश्चित नहीं है, व्यावहारिक अर्थों में। विभिन्न चुनावों के लिए अलग-अलग मतदाता सूची होना भी अनैतिक है। इस खेल को बंद किया जाना चाहिए। अब जरूरत इस बात की है कि आधार कार्ड को अनिवार्य किया जाए और अन्य सभी अनावश्यक पहचान के दस्तावेजों में न्यूनता लाई जाई। यह तभी सम्भव है, जब जनगणना के आंकड़े दुरुस्त रहेंगे।

वास्तव में, सब्सिडी से लेकर सरकारी फ्लैगशिप कार्यक्रमों में सभी जरूरतमंदों के नाम शामिल करना और उन्हें वाजिब सुविधाएं देना और भी टेढ़ी खीर प्रतीत होता है। कहने को तो आरक्षण और सामाजिक न्याय की बातें चलती रहती हैं, लेकिन सबको समरूप तौर पर सुविधाएं व सहूलियत देने-दिलवाने में मौजूदा सिस्टम फिसड्डी साबित हुआ है। यह कितनी चिंता की बात है कि देश में समान मताधिकार की बात तो होती है, लेकिन अन्य समानताओं पर संविधान ‘गूंगा’ या ‘पक्षपाती’ प्रतीत होता है! इस मसले पर तथाकथित बुद्धिजीवी मतलबपरस्त दृष्टिकोण रखते आये हैं। शायद सही आंकड़ा उपलब्ध नहीं होने के चलते ही यह सब कुछ हो रहा हो। लेकिन अब गृहमंत्री अमित शाह ने इसकी तोड़ निकाल ली है और जनगणना सम्बन्धी जो कानून लेकर सामने आने वाले हैं, वह देश की नीति और दिशा दोनों बदलने वाली साबित होगी।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)