Saturday, November 23"खबर जो असर करे"

संवैधानिक मूल्यों को समृद्ध करेगा नया संसद भवन

– प्रो. संजय द्विवेदी

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 28 मई को संसद के नवनिर्मित भवन का लोकार्पण करेंगे। भारत में संसद को लोकतंत्र का मंदिर कहा जाता है। लोकतंत्र में संसद का वही स्थान है, जो भारतीय संस्कृति में भगवान का है। हमारे संविधान निर्माताओं ने इसलिए कहा भी था कि लोकतंत्र में प्रत्येक विचार का केंद्र बिंदु संसद ही है और राष्ट्र निर्माण में उसकी अहम भूमिका है। लोकसभा तथा राज्यसभा, दोनों सदनों ने 5 अगस्त, 2019 को सरकार से संसद के नए भवन के निर्माण के लिए आग्रह किया था। इसके बाद 10 दिसंबर, 2020 को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संसद के नए भवन का शिलान्यास किया था। संसद के नवनिर्मित भवन को गुणवत्ता के साथ रिकॉर्ड समय में तैयार किया गया है। चारमंजिला संसद भवन में 1272 सांसदों के बैठने की व्यवस्था की गई है। संसद के वर्तमान भवन में लोकसभा में 550, जबकि राज्यसभा में 250 माननीय सदस्यों की बैठक की व्यवस्था है। भविष्य की जरूरतों को देखते हुए संसद के नवनिर्मित भवन में लोकसभा में 888, जबकि राज्यसभा में 384 सदस्यों की बैठक की व्यवस्था की गई है। दोनों सदनों का संयुक्त सत्र लोकसभा चैंबर में ही होगा। संसद सदस्यों के लिए एक लाउंज, एक पुस्तकालय, कई समिति कक्ष, भोजन क्षेत्र और पर्याप्त पार्किंग स्थान भी होगा। लेकिन आम नागरिकों के लिए जरूरी है कि वह लोकतंत्र में संसद की क्या भूमिका है, इसको भी समझें।

दुनिया में 13वीं शताब्दी में रचित मैग्ना कार्टा की बहुत चर्चा होती है। कुछ विद्वान इसे लोकतंत्र की बुनियाद भी कहते हैं। लेकिन बहुत कम लोग यह बात जानते हैं कि मैग्ना कार्टा से भी पहले 12वीं शताब्दी में ही भारत में भगवान बसवेश्वर का ‘अनुभव मंटपम’ अस्तित्व में आ चुका था। ‘अनुभव मंटपम’ के रूप में उन्होंने लोक संसद का न सिर्फ निर्माण किया था, बल्कि उसका संचालन भी सुनिश्चित किया था। भगवान बसवेश्वर जी ने कहा था – ‘यी अनुभवा मंटप जन सभा, नादिना मट्ठु राष्ट्रधा उन्नतिगे हागू, अभिवृध्दिगे पूरकावगी केलसा मादुत्थादे!’ यानी ये अनुभव मंटपम, एक ऐसी जनसभा है, जो राज्य और राष्ट्र के हित में और उनकी उन्नति के लिए सभी को एकजुट होकर काम करने के लिए प्रेरित करती है।

मुझे लगता है कि अनुभव मंटपम, लोकतंत्र का ही एक स्वरूप था। इसी तरह तमिलनाडु में चेन्नई से 80 किलोमीटर दूर उत्तरामेरुर नाम के गांव में एक बहुत ही ऐतिहासिक साक्ष्य दिखाई देता है। इस गांव में चोल साम्राज्य के दौरान 10वीं शताब्दी में पत्थरों पर तमिल में लिखी गई पंचायत व्यवस्था का वर्णन है। इसमें बताया गया है कि कैसे हर गांव को कुडुंबु में बांटा जाता था, जिन्हें हम आज वार्ड कहते हैं। इन कुडुंबुओं से एक-एक प्रतिनिधि महासभा में भेजा जाता था और वैसा आज भी होता है। इस गांव में हजार वर्ष पूर्व जो महासभा लगती थी, वो आज भी वहां मौजूद है।

एक हजार वर्ष पूर्व बनी इस लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक और बात बहुत महत्वपूर्ण थी। पत्थर पर लिखा हुआ है कि जनप्रतिनिधि को चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य घोषित करने का भी प्रावधान था। जो जनप्रतिनिधि अपनी संपत्ति का ब्योरा नहीं देगा, वो और उसके करीबी रिश्तेदार चुनाव नहीं लड़ पाएंगे। आप सोचिए कितने सालों पहले, कितनी बारीकी से उस समय हर पहलू के बारे में सोचा गया था, समझा गया था और अपनी लोकतांत्रिक परंपराओं का हिस्सा बनाया गया था। लोकतंत्र का हमारा ये इतिहास देश के हर कोने में नजर आता है।

कुछ पुरातन शब्दों से तो हम बराबर परिचित हैं, जैसे सभा, समिति, गणपति, गणाधिपति। ये शब्दावली हमारे मन मस्तिष्क में सदियों से प्रवाहित है। सदियों पहले शाक्या, मल्लम और वेज्जी जैसे गणतंत्र हों, मल्लक मरक और कम्बोज जैसे गणराज्य हों या फिर मौर्य काल में कलिंग, सभी ने लोकतंत्र को ही शासन का आधार बनाया था। हजारों साल पहले रचित हमारे ऋग्वेद में लोकतंत्र के विचार को समज्ञान यानी समूह चेतना के रूप में देखा गया था।

संसदीय व्यवस्था में सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच सतत संवाद, सहमति, सहयोग, सहकार, स्वीकार और सम्मान का भाव प्रबल होना ही चाहिए। यही लोकतंत्र की विशेषता है। इसी में संसदीय परंपरा की महिमा और गरिमा है। संभव है, इसे कुछ लोग कोरी राजनीति कहकर विशेष महत्व न दें, बल्कि सीधे खारिज कर दें, परंतु मूल्यों के अवमूल्यन के इस दौर में ऐसी राजनीति की महती आवश्यकता है। ऐसी राजनीति ही राष्ट्र-नीति बनने की संभावना रखती है। ऐसी राजनीति से ही देश एवं व्यवस्था का सुचारू संचालन संभव होगा। केवल विरोध के लिए विरोध की राजनीति से देश को कुछ भी हासिल नहीं होगा। विपक्ष को साथ लेना यदि सत्तापक्ष की जिम्मेदारी है, तो विपक्ष की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वह राष्ट्रीय हितों के मुद्दों पर सरकार का साथ दे, सहयोग करे, जनभावनाओं की मुखर अभिव्यक्ति के साथ-साथ विधायी एवं संसदीय प्रक्रिया एवं कामकाज को गति प्रदान करे। लोकतंत्र में सरकार न्यासी और विपक्ष प्रहरी की भूमिका निभाए ।

भारत की सबसे बड़ी ताकत इसकी सफल बहुदलीय संसदीय लोकतांत्रिक प्रणाली है। एक सजीव, गतिशील और बहुदलीय प्रणाली में ऐसे अवसर हो सकते हैं जब विभिन्न संस्थाएं एक विशेष तरीके से काम करें, किंतु हमारे पास व्यवस्था में किसी भी मनमुटाव को दूर करने और किसी भी संकट से बचने की क्षमता है। आप देखिए कि भारत की संसद अपनी प्रकृति और परंपरा में औरों से बिल्कुल अलग है। यहां प्रीति और कलह साथ-साथ चलते हैं।

भारत की रीति-नीति-प्रकृति से अनजान व्यक्ति को संसद में होने वाली गर्मागर्म बहसों को देखकर अचानक लड़ाई-झगड़े का भ्रम हो उठेगा, परंतु ये चर्चाएं हमारे विचार विनिमय के जीवंत प्रमाण हैं। यहां मतभेद तो हो सकते हैं, पर मनभेद की स्थायी गांठ को कोई नहीं पालना चाहता और मतभेद चाहे विरोध के स्तर तक क्यों न चले जाएं, परंतु विशेष अवसरों पर साथ निभाना और सहयोग देना हमें बखूबी आता है।

यही वह संसद है, जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी, ज्योतिर्मय बसु, मधु लिमये, पीलू मोदी, जगजीवन राम, चौधरी चरण सिंह, चंद्रशेखर, जॉर्ज फर्नांडीज, हेमवती नंदन बहुगुणा, नरसिंह राव, प्रणब मुखर्जी, सुषमा स्वराज जैसे दिग्गज सांसदों ने पक्ष-विपक्ष में रहकर आदर्श लोकतांत्रिक परंपरा को मजबूत किया और नैतिक मूल्यों और संस्कारों की रक्षा की। मान-मर्यादा हमारी परंपरा का सबसे मान्य, परिचित और प्रचलित शब्द है। हम अपने-पराए सभी को मुक्त कंठ से गले लगाते हैं, भिन्न विचारों का केवल सम्मान ही नहीं करते, अपितु एक ही परिवार में रहते हुए भिन्न-भिन्न विचारों को जीते-समझते हैं और विरोध की रौ में बहकर कभी लोक-मर्यादाओं को नहीं तोड़ते। यही भारत की संसद की रीति है, नीति है, प्रकृति है और संस्कृति है।

मुझे पूरी उम्मीद है कि संसद का नवनिर्मित भवन भारत की गौरवशाली लोकतांत्रिक परंपराओं और संवैधानिक मूल्यों को और अधिक समृद्ध करने का कार्य करेगा। साथ ही अत्याधुनिक सुविधाओं से युक्त इस भवन में सदस्यों को अपने कार्यों को और बेहतर तरीके से करने में भी सहायता मिलेगी।

(लेखक, भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली के महानिदेशक हैं।)