– अरूण कुमार जैन
औद्योगिक एवं व्यापारिक क्षेत्र में देश एवं दुनिया बहुत आगे निकल चुकी है। अपने-अपने दृष्टिकोण से लोग अपना बिजनेस एवं व्यापार बढ़ाने में लगे हैं। आज-कल देश में मार्केटिंग क्षेत्रा में एक बात बहुत जोर-शोर से कही जाती है कि ‘कर लो दुनिया मुट्ठी में’ इस मार्केटिंग पंच के आविष्कारक रिलाएंस गु्रप के संस्थापक स्व. श्री धीरूभाई अंबानी थे। यह नारा हिन्दुस्तान में उस समय आया था जब भारत में इलेक्ट्रानिक और कम्युनिकेशन इंडस्ट्रीज का दौर चल रहा था। कम्युनिकेशन के क्षेत्रा में मोबाइल और अन्य 2जी, 3जी, 4जी सुविधाओं एवं उनके इस्तेमाल से अब यह प्रतीत होने लगा है कि वाकई दुनिया एक मुट्ठी में आ गई है। घर से बैठे-बैठे लोग पूरी दुनिया एवं देश में व्यापार करने लगे हैं।
इस उपभोक्तावादी और सुविधावादी व्यवस्था में लाभ तो दिखाई देता है मगर क्या इसका लाभ आम जन को भी मिल रहा है। आम जन का आशय उस व्यक्ति से अधिक है जो मजदूर या कारंीगर के रूप में कार्य कर रहे हैं। जो लोग हाथ के कारीगर हैं या हस्तकला में निपुण हैं, क्या उनकी कला या निपुणता का लाभ उनको मिल पा रहा है, इस बात का विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।
भविष्य में ‘कर लो दुनिया मुट्ठी में, की तर्ज पर और अधिक व्यापार बढ़ेगा तो तब इनका क्या हाल होगा? चूंकि, उपभोक्ता की दृष्टि से भारत एक बहुत बड़ा बाजार है, इसलिए पूरी दुनिया भारत को एक बाजार के रूप में देखती है।
वर्तमान समय में हस्तशिल्प और हस्तकला द्वारा निर्मित सामानों की उपलब्धता और उपयोगिता की जानकारी सहजता एवं सरलता से प्राप्त की जा सकती है किंतु इसके उपरान्त सीधे तौर पर इसका लाभ कारीगरों एवं मेहनतकशों को भी मिल सके, इस बात की चिंता करना नितांत आवश्यक है क्योंकि अभी तक देखने में आया है कि हस्तशिल्प एवं हस्तकला से निर्मित सामानों की बिक्री ऑनलाइन खुले बाजार में बहुत तेजी से हो रही है किंतु अभी देखने में आ रहा है कि उसका लाभ कारीगरों को नहीं मिल रहा है।
कारीगरों एवं मेहनतकशों की हथेली यदि खाली रहेगी तो इस बढ़ते व्यापार से सिर्फ असंतुलन ही पैदा होगा। जबसे देश में उदारीकरण के दौर की शुरुआत हुई तभी से एक व्यवस्था ऐसी बन गई कि अमीर गरीब के बीच खाई बढ़ती गईं। अमीर लोग और अधिक अमीर होते गये और गरीब और अधिक गरीब होते गये। देश की सारी संपत्ति मात्रा कुछ प्रतिशत लोगों के हाथों में सिमट कर रह गई।
वर्तमान व्यवस्था में स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि कोई खाकर मर रहा है तो कोई खाने बिना मर रहा है। सामाजिक, आर्थिक या किसी भी दृष्टिकोण से देखा जाये तो इस प्रकार की व्यवस्था बहुत दिनों तक नहीं चलाई जा सकती है। यही कारण है कि जबसे एनडीए सरकार सत्ता में आई है, गरीबों एवं आम जनता को ध्यान में रखकर अनेक प्रकार की योजनाएं चला रही है। ये सब योजनाएं चलाने का मकसद यही है कि गरीब एवं आम जन भी सम्मान का जीवन जी सकें एवं अपना भविष्य सुरक्षित महसूस कर सकें।
अपने देश में वैसे भी एक कहावत है कि ‘मरता क्या नहीं करता’ अर्थात जो व्यक्ति भूखों मरने की कगार पर होगा वह कोई भी गलत काम करने को तैयार हो जाता है। वह किसी के बहकावे में भी आ जाता है।
आज समाज में जो भी अपराध देखने को मिल रहे हैं, उनमें तमाम अपराध ऐसे होते हैं जो आर्थिक असमानता, भुखमरी एवं गरीबी से संबंधित होते हैं इसलिए पूरे समाज की यह जिम्मेदारी बनती है कि राष्ट्र की प्रगति में आमजन की भी भागीदारी सुनिश्चित हो सके अन्यथा यदि आम जनता में व्यवस्था के प्रति आक्रोश होगा तो यह देश एवं समाज की सेहत के लिए ठीक नहीं होगा और इसका फायदा केजरीवाल जैसे अन्य लोग भी आम जनता की भावनाएं भड़का कर ले सकते हैं। अतः आज आवश्यकता इस बात की है कि देश के विकास में सबकी भागीदारी सुनिश्चित होनी चाहिए।
आज हमारे देश में हस्तनिर्मित सामानों की भरमार है और उनकी मार्केटिंग ‘आनलाइन’ बहुत तेजी से होने लगी है। आनलाइन मार्केटिंग से दुनिया मुट्ठी में तो आ गई है लेकिन क्या उसका लाभ मात्रा कुछ लोगों तक ही सिमटकर तो नहीं रह गया है।
आज देश में मुरादाबाद, फिरोजाबाद, कश्मीर, वाराणसी, कानपुर, भदोही, मऊ, गुवाहाटी, केरल, जयपुर, हैदराबाद, मुंबई, बेंगलुरु, सिक्किम, मिजोरम आदि जैसे तमाम छोटे-बड़े शहरों एवं कस्बों में हाथ से निर्मित सामान बन रहे हैं और उनमें से अधिकांश सामानों की मार्केटिंग आनलाइन शुरू भी हो चुकी है किंतु देखने में आ रहा है कि आनलाइन मार्केटिंग का अधिकांश लाभ थोक व्यापारी एवं बिचौलिये उठा रहे हैं। उदाहरण के तौर पर देखा जाये तो श्रीनगर में पेपरमेशी के काम के लगभग सौ कारखाने हैं। हर कारखाने में चार से पांच आदमी काम करते हैं।
श्रीनगर के आलमगीर बाजार में कारखाना चलाने वाले मो. अमीन के अनुसार पेपरमेशी का हमारा सामान दूर-दूर तक जाता है। दिल्ली, मुंबई की बड़ी-बड़ी कंपनियां हमसे सामान मंगवाती हैं। क्रिसमस के सीजन में ज्यादा डिमांड होती है। पेपरमेशी के बॉल, स्टार, बेल वगैरह मंगवाये जाते हैं लेकिन अब कारीगर को रोकना बहुत मुश्किल हो गया है। तीन इंच की बॉल हम कस्टमर को चालीस रुपये में देते हैं। उस पर कोरियर का खर्च हमें ही उठाना पड़ता है जबकि इंटरनेट पर यही बॉल बड़ी-बड़ी कंपनियां सौ-डेढ़ सौ रुपये में बेचती हैं। बड़े-बड़े लोगों ने हमारी कला को अपने पास रख लिया है तो कारीगर को कैसे फायदा होगा? इस उदाहरण से यह समझा जा सकता है कि जो कारीगर एवं मजदूर सब कुछ करता है, उसे क्या हासिल हो रहा है?
इस पूरे प्रकरण में एक कहावत बेहद सटीक बैठती है कि ‘माल खाये मदारी – नाच करे बंदर’। यानी नाचने का काम तो बंदर करता है और कमाई मदारी यानी नचाने वाले के हाथ में जाती है। ठीक यही उदाहरण कारीगरी के सामानों के मामले में भी देखने को मिल रहा है। मेहनत तो कारीगर कर रहा है किंतु उसका फायदा बड़ी कंपनियां एवं बिचौलिये ले जा रहे हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं कि ‘ऑन लाइन मार्केटिंग’ के द्वारा व्यापार लगातार बढ़ रहा है। आनलाइन सिस्टम में सिर्फ एक क्लिक दबाइये और मन पसंद सामान आपके दरवाजे पर हाजिर हो जाता है। वास्तव में आनलाइन खरीदारी ने ग्लोबल मार्केट का दरवाजा खोल दिया है।
ई-कॉमर्स की वजह से देश के छोटे-छोटे शहरों के हैंडीक्राफ्ट तक उपभोक्ताओं की सीधी पहुंच हो गई है। इसके बावजूद प्रश्न यह भी है कि बाजार से सीधे जुड़ने का फायदा कितना पहुंच रहा है। मेहनत करने वाले कारीगरों तक? कितना चढ़ा है आनलाइन बाजार का खुमार और कितना बढ़ा है कारोबार?
हालांकि, ऐसा भी नहीं है कि सभी क्षेत्रों में ई-शापिंग का कारोबार बहुत तेजी से बढ़ा है। मुरादाबाद का पीतल व स्टील देश-विदेश तक छाया हुआ है लेकिन ई-शापिंग कंपनियों से सीधे नहीं जुड़ पाने की वजह से इस शहर के निर्यातक काफी अरसे से अपनी वेब साइट के जरिये ही विदेशी बायर्स से कारोबार कर रहे हैं।
बनारसी साड़ियों की बात की जाये तो चाहे जितनी भी डिजाइन बाजार में आ जायें किंतु इसकी ललक सभी को होती है। इनकी आनलाइन बिक्री ने दूर देश में बैठे ग्राहकों को सुविधा तो दी है लेकिन कारोबार में उछाल को नाकाफी बताया जा रहा है।
बुनकर नेता अब्दुल कादिर अंसारी के मुताबिक हथकरघा पर बुने कपड़ों के कारोबार को बढ़ावा देने के लिए हालांकि प्रयास हो रहे हैं लेकिन वे नाकाफी हैं। बनारसी साड़ी की बिक्री आनलाइन तो होने लगी है लेकिन खुशहाली का अभी इंतजार है। बुनकर अहसन हमदी के मुताबिक बुनकरों को उनके श्रम का लाभ नहीं मिल पा रहा है। बुनकरों की मेहनत का लाभ बनारसी साड़ी व्यवसायी उठा रहे हैं।
इस प्रकार देखा जाये तो हस्तनिर्मित जितने भी सामान हैं, उनमें से कुछ की पकड़ आनलाइन मार्केटिंग में बहुत अच्छी बन चुकी है, कुछ की नहीं बन पाई है। जिनकी नहीं बन पाई है वे इसके लिए प्रयासरत हैं? यहां एक सवाल यह भी उठता है कि क्या बुनकर भी चाहता है कि उसके हाथ के बने सामानों की बिक्री आनलाइन हो। निश्चित रूप से कारीकर तभी आनलाइन मार्केटिंग की तरफदारी करेगा, जब उसे लगेगा कि उसका लाभ उसे भी मिलेगा।
आनलाइन मार्केटिंग से बड़े व्यवसायियों को चाहे जितना भी लाभ मिल जाये किंतु जब तक उसका लाभ कारीगरों एवं मजदूरों को नहीं मिलेगा तब तक उसका कोई अर्थ नहीं रह जायेगा। इस देश में जब तक सामान्य जन सुखी नहीं होगा तब तक विकास की कल्पना बेमानी ही मानी जायेगी। वैसे भी यदि देश में अमन-चैन का माहौल बनाये रखना है तो ‘आम जन का ध्यान तो देना ही होगा।