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समलैंगिक विवाह और भारतीय मान्यता

– डॉ. पुनीत कुमार द्विवेदी

समलैंगिकता का मुद्दा सदियों से भारत में विवादास्पद रहा है। समाज ने पारंपरिक रूप से विषम लैंगिकता को सामाजिक निर्माण के रूप में बरकरार रखा है। समाज ने इसके किसी भी विचलन को अस्वीकार्य माना है। इस संबंध में उभरी सबसे हालिया बहसों में से एक यह है कि क्या भारत में समलैंगिक विवाह की अनुमति दी जानी चाहिए या नहीं। संस्कृति प्रधान देश में समलैंगिक विवाह को सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक मान्यताओं के दृष्टिकोण से अभिशाप या सामाजिक विकृति के रूप में माना जाता है। यह मामला इस समय उच्चतम न्यायालय में गूंज रहा है।

सांस्कृतिक दृष्टिकोणः भारतीय संस्कृति में धार्मिक, आध्यात्मिक और नैतिक मान्यताएं गहराई से निहित हैं। हमारे यहां विवाह संस्था को पवित्र माना जाता है। इसे एक पुरुष और एक महिला के बीच पवित्र बंधन के रूप में देखा जाता है। जो भी इस मानदंड से विचलित होता है उसे अप्राकृतिक, अधार्मिक या राक्षसी के रूप में देखा जाता है। इसलिए भारत का अधिकांश समुदाय समलैंगिक विवाह की अवधारणा से न केवल घृणा करता है बल्कि इसका तिरस्कार भी करता है। भारत में समलैंगिक विवाह को अभिशाप के रूप में देखने की सांस्कृतिक धारणा इस तथ्य से और बढ़ जाती है कि भारतीय परंपरा में प्रजनन और परिवार की निरंतरता को जीवन के एक महत्वपूर्ण पहलू के रूप में माना जाता है। समलैंगिक व्यक्तियों का विवाह बंधन में बंधने का विचार समाज की सांस्कृतिक प्रथाओं, विश्वासों और मूल्यों के ताने-बाने के विपरीत है।

सामाजिक दृष्टिकोणः भारत में समलैंगिक विवाह के मुद्दे को सामाजिक दृष्टिकोण से भी नकारात्मक रूप से देखा जाता है। समाज की संरचना में प्रत्येक व्यक्ति की भूमिका और जिम्मेदारी होती है। उसे समाज में व्यवस्था और संतुलन बनाए रखने के लिए पूरा करना होता है। भारतीय समाज में हमेशा एक प्रदाता, रक्षक और नेतृत्वकर्ता के रूप में पुरुषों और महिलाओं को महत्व दिया गया है। पुरुष और महिलाएं एक-दूसरे के सहायक की भूमिका में परिवार का पालन-पोषण एवं सामाजिक उत्तरदायित्व का निर्वहन करते हैं। समलैंगिक विवाह की स्वीकृति पीढ़ियों से स्थापित सामाजिक संतुलन को बाधित करेगी। अराजकता और भ्रम का वातावरण बनेगा। स्वीकृत भूमिकाओं और सामाजिक पदानुक्रम खंडित होगा । इससे सामाजिक एकता टूटेगी और सामाजिक संरचना कमजोर होगी। अनैतिकता को बढ़ावा मिलेगा।

धार्मिक दृष्टिकोणः हिंदू धर्म स्पष्ट रूप से समलैंगिकता के किसी भी रूप की निंदा करता है। उसमें समलैंगिक संबंधों को घृणा की दृष्टि से देखा जाता है। समलैंगिक संबंध नरक का एक निश्चित मार्ग है। भारत में दूसरा सबसे प्रमुख धर्म इस्लाम भी समलैंगिकता को तिरस्कार के साथ देखता है। उसमें समान लिंगी विवाह सख्त वर्जित है। भारतीय समाज समलैंगिक विवाह को कभी स्वीकार नहीं कर सकता। सांस्कृतिक, सामाजिक और धार्मिक मान्यताएं भारतीय लोकाचार का अभिन्न अंग हैं। यह लोकाचार ऐसे विवाह को अस्वीकार्य करता है। ऐसे में यह महत्वपूर्ण है कि नीति निर्माता, नागरिक समाज और अन्य हितधारक इस मामले में समग्र और बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाएं।

(लेखक, मॉडर्न ग्रुप ऑफ इंस्टीट्यूट्स इंदौर के प्रोफेसर एवं समूह निदेशक हैं।)