– सियाराम पांडेय ‘शांत’
विरोध-प्रदर्शन, सत्याग्रह, हड़ताल और आंदोलन लोकतंत्र के ऐसे हथियार हैं जो अपनी जिम्मेदारी को भूल बैठे सत्ताधीशों को कुम्भकर्णी नींद से जगाने में अहम भूमिका निभाते हैं। लेकिन हर आंदोलन की अपनी मर्यादा होती है।अपनी आधार भूमि होती है। अपना उद्देश्य होता है। बात-बात पर होने वाले आंदोलन देश का मार्गदर्शन तो करते नहीं, अलबत्ता परेशानी और चिंता का ग्राफ जरूर बढ़ा देते हैं।
बिना सिर-पैर के आंदोलनों से वैसे भी किसी का भला नहीं होता। नुकसान अधिकांश जनता का होता है। यातायात जाम में फंसे देश को रोज कितना जान-माल का नुकसान होता है, यह किसी से छिपा नहीं है। किसान आंदोलन के नाम पर जब रेल ट्रैक जाम कर दिए जाते हैं या सरकारी वाहनों को आग के हवाले कर दिया जाता है तो इससे देश की कितनी क्षति होती है, इसे आवेशित आंदोलनकारी नहीं समझ सकते, लेकिन देश को समझना होगा।
हड़ताल का अपना मनोविज्ञान होता है। वह कुछ तिकड़मबाजों के लिए तो फायदेमंद होती है लेकिन जरूरी नहीं कि हड़ताल में शामिल हर आंदोलनकारी तक लाभ की किरण पहुंचे ही। जो जिस विभाग से जुड़ा है, उसकी समस्याओं को लेकर हड़ताल हो तो बात समझ में आती है लेकिन सस्ती लोकप्रियता के लिए किसी भी मुद्दे को लपक लेना और उस पर आंदोलन करते हुए देश को परेशानी में डालना किसी भी लिहाज से उचित नहीं है। इसलिए देश में आंदोलनों को लेकर एक आचार संहिता तो बननी ही चाहिए। हड़ताल को देश पर थोपना क्यों जरूरी है, यह बात देश को बताई तो जानी ही चाहिए।
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने वकीलों की हड़ताल पर न केवल नाराजगी जाहिर की है बल्कि यह भी कहा है कि वकील न तो हड़ताल पर जा सकते हैं और न ही काम बंद कर सकते हैं। शीर्ष अदालत का तर्क है कि वकीलों की हड़ताल से अदालतों में मुकदमों का पहाड़ खड़ा हो जाता है। शीर्ष अदालत के इस तर्क में दम है। यह पहला मौका नहीं जब सुप्रीम कोर्ट ने इस तरह की तल्ख टिप्पणी की है। वर्ष 2019-20 में भी उत्तराखंड के वकीलों की हड़ताल पर सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों ने कुछ ऐसी ही टिप्पणी की थी। मौजूदा टिप्पणी भी उत्तराखंड के ही संदर्भ में है। ऐसा भी नहीं कि उत्तराखंड अकेला राज्य है, जहां हड़ताल पर सुप्रीम कोर्ट कोर्ट तल्ख होता नजर आया है। सवाल यह है कि शीर्ष अदालत को बार-बार इस तरह की टिप्पणी करनी क्यों पड़ रही है और अधिवक्ता हड़ताल को लेकर उसके आदेशों की अनदेखी क्यों कर रहे हैं? यह बार और बेंच के बीच समन्वयहीनता नहीं तो और क्या है?
उत्तराखंड के वकीलों का 35 साल से हर शनिवार को हड़ताल का सिलसिला चला आ रहा था। जाहिर है कि बार और बेंच के बीच कुछ तो जटिलता है जो ठीक नहीं हो पा रही है। देश की शीर्ष अदालत भी सब समझती है लेकिन वह फुंसी को नासूर बनते भी तो नहीं देख सकती। सो, इस बार के अपने निर्णय में उसने निदान का तत्व भी तलाशने की कोशिश की है। सभी उच्च न्यायालयों को मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में वकीलों की शिकायतों के निवारण के लिए राज्यस्तरीय समिति गठित करने के निर्देश दिए हैं। अपने निर्णय में उसने निचली अदालत के वकीलों के हितों और उनकी समस्याओं का भी ध्यान रखा है। जिला स्तर पर भी इस तरह की समिति गठित करने के निर्देश दिए हैं। यह एक स्वस्थ और सकारात्मक पहल है। बार और बेंच के टकराव घटाकर ही न्यायालयों में कामकाज की स्थिति सुचारू हो सकती है।
रही बात अदालतों में केसों का पहाड़ खड़ा होने की तो जितना बैकलॉग खत्म नहीं होता, उससे अधिक मुकदमे रोज हर अदालतों में उपस्थित हो जाते हैं। 7 दिसंबर, 2022 को केंद्रीय विधि मंत्री किरन रिजीजू ने राज्यसभा में जो जानकारी दी थी, वह बेहद चौंकाने वाली है। उनके मुताबिक देश के 25 उच्च न्यायालयों में 5894060 मुकदमें लंबित हैं, जिसमें 10 लाख से अधिक मुकदमें तो अकेले इलाहाबाद उच्च न्यायालय में लंबित हैं। पटना उच्च न्यायालय में लंबित वादों की संख्या जहां 260917 है,वहीं गुजरात हाई कोर्ट में 157104 और उत्तराखंड उच्च न्यायालय में 43172 वाद लंबित हैं। सर्वोच्च न्यायालय में 11049 मामले ऐसे हैं जो एक दशक से अधिक समय से लंबित है। बात अगर निचली अदालतों की करें तो वहां चार करोड़ 34 लाख से अधिक मामले लंबित हैं। पर्यावरणीय अपराध से जुड़े 9.36 लाख मामले भी देश की अदालतों में लंबित है। ऐसे में आए दिन होने वाली वकीलों की हड़ताल चिंता तो बढ़ाती ही है। इस तरह की हड़ताल पर तत्काल अंकुश लगाए जाने की जरूरत है।
20 फरवरी, 2020 को सर्वोच्च न्यायालय ने देहरादून, ऊधम सिंह नगर और हरिद्वार जिले की निचली अदालतों में 35 साल से हर शनिवार को होने वाली हड़ताल को अवैध ठहराया था और बार काउंसिल ऑफ इंडिया व राज्य काउंसिल ऑफ इंडिया को ऐसे वकीलों के खिलाफ कार्रवाई के निर्देश दिए थे। देश के मौजूदा प्रधान न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने गत 21 दिसंबर 2022 को आंध्र प्रदेश में कहा था कि देश की न्यायिक व्यवस्था को तारीख पर तारीख वाली छवि बदलने की जरूरत है। यह अपील काबिल-ए-गौर है।
जिस देश की निचली अदालतों में 63 लाख मामले इसलिए लंबित हैं कि उन्हें लड़ने के लिए वकील ही नहीं है। उस देश में आए दिन होने वाली वकीलों की हड़ताल समझ से परे है। वैसे भी इन दिनों वकील जिस तरह के मुद्दों को लेकर हड़ताल कर रहे हैं, उसका न्यायिक सेवाओं से कोई मतलब नहीं है। बेहतर है कि अपने कार्यक्षेत्र की समस्याओं को ही उठाया जाए।सत्याग्रह, हड़ताल या विरोध-प्रदर्शन अंतिम विकल्प होना चाहिए। हड़ताल लोक संस्कृति का हिस्सा नहीं बनना चाहिए क्योंकि एक छोटी सी हड़ताल भी थोड़े समय के लिए वहां की विकास की गति अवरुद्ध कर देती है। एक दिन की हड़ताल से देश का विकास एक माह पिछड़ जाता है।
सर्वोच्च न्यायालय में शिकायत निवारण समितियों के गठन का उचित निर्णय लिया है। इसे नजीर मानते हुए केंद्र और राज्य सरकारों को भी राज्य, जिला, तहसील और यहां तक कि ब्लॉक स्तर पर भी हर विभागों के शिकायत निवारण प्रकोष्ठ गठित करने चाहिए, जिससे आंदोलन और विरोध-प्रदर्शन की जरूरत ही न पड़े। आंदोलन का महत्व समझते हुए अगर आंदोलन किया जाएगा तो उससे जो नवनीत निकलेगा, वह फायदेमंद होगा लेकिन अनावश्यक आंदोलन इस देश को गर्त में ही ले जाने का काम करेंगे। उसके हलाहल को निगल पाना न तो इस देश के लिए लाभप्रद है और न ही श्रेयस्कर। इसलिए भी इस देश के रणनीतिकारों, राजनीतिज्ञों, बौद्धिकों को सोचना होगा कि वे इस देश में विकास का इंकलाब लाना चाहेंगे या व्यर्थ के आंदोलनों की झड़ी लगाना पसंद करेंगे।
विकास के राही नवोन्मेष में विश्वास करते हैं। चरैवेति-चरैवेति की परंपरा में जीना पसंद करते हैं। आंदोलन ठहराव का दूसरा नाम है। प्रकृति में गतिशीलता है। इसीलिए वह सुंदर दिखती है। आंदोलन या हड़ताल गतिशील व्यक्ति के पांव खींचने जैसा प्रयास है। अब हमें सोचना है कि हम अपनी जिम्मेदारियों का पथ अपनाएंगे या आंदोलन की संकरी, पथरीली और कंटीली पगडंडियों पर चलकर अपने और देश के श्रम, समय और धन की बर्बादी के संवाहक बनेंगे। तय तो हमें ही करना है। आज करें या कल। ध्यान रहे, इस विचार विन्यास में इतनी देर न करें कि सिर्फ पछतावा ही हाथ लगे।
(लेखक, हिन्दुस्थान समाचार से संबद्ध हैं।)