Friday, November 22"खबर जो असर करे"

कृषि सुधार और अंतहीन बहस

– प्रभुनाथ शुक्ल

स्वतंत्र भारत में लघु और सीमांत किसानों की माली हालत किसी से छुपी नहीं है। मोदी सरकार किसानों की आय दोगुना करने का प्रयास कर रही है। इससे कुछ बदलाव भी दिख रहा है। बावजूद इसके देश का पेट भरने वाला अधिसंख्य किसान खुद भूखा, नंगा और फटेहाल है। भारत में कृषि सुधार एक अंतहीन बहस का मुद्दा रहा है। इस पर कब पूर्णविराम लगेगा, यह अबूझ पहेली है।

आजादी के बाद श्वेत और हरित क्रांति के नारे बुलंद किए गए,लेकिन जमीनी स्तर पर उसका लाभ किसानों को नहीं मिला। तत्कालीन सरकारों की नीतियों की वजह से किसान आत्महत्या करने को मजबूर हुआ। बैंकों के कर्ज तले उसकी पीढ़ियां दबती चली गईं। किसानों की समस्याओं को लेकर एक स्वतंत्र आयोग का गठन नहीं किया जा सका जो किसानों की समस्याओं की निगरानी रखता।

आधुनिक विकास में लघु और सीमांत किसानों के लिए कृषि लाभकारी साबित नहीं हो पाई। अगर ऐसा होता तो किसान आत्महत्या सरीखा कदम कभी नहीं उठता। देश की जीडीपी में कृषि कि हिस्सेदारी तकरीबन 20 फीसदी है। बावजूद किसान की हालत किसी से छुपी नहीं है। महाराष्ट्र में 512 क्विंटल प्याज बेचने के बाद किसान को सिर्फ दो रुपये का मुनाफा मिलता है। यह खेती और किसान साथ भद्दा मजाक नहीं तो और क्या है। सरकारों ने किसानों को सिर्फ लालीपॉप दिया उनकी माली हालत सुधारने का प्रयास नहीं किया।

केंद्र की मोदी सरकार ने सूरत बदलने की कोशिश की। कृषि कानून लाया गया पर आंदोलन की वजह से कुछ नहीं हो पाया। किसानों की उपज और मंडी के बीच आर्थिक संतुलन बढ़ाने और लागत घाटा कम करने की ठोस नीति की जरूरत इस समय महसूस की जा रही है। भारत का किसान दुनिया का पेट भर सकता है, लेकिन हमारी सरकारों के पास ऐसी नीति नहीं है जिससे उसकी माली हालत में सुधार हो। किसनों की उपज और उससे जुड़े रासायनिक उर्वरक कृषि संयंत्र बेंच कर लोग मालामाल हो गए। लेकिन किसान जहां का तहां रह गया। किसान अपना धान और गेहूं 2200 रुपये प्रति क्विंटल के समर्थन मूल्य पर बेचता है। किसान उसी फसल का बीज महंगा लेता है।

देश के लघु, सीमांत और मध्यम किसानों के लिए कृषि में बेहतर सुधार की आवश्यकता है। किसानों की फसलों का उचित समर्थन मूल्य मिलना चाहिए। फसलों के तैयार होने के बाद तत्काल उन्हें बाजार उपलब्ध कराना होगा। सस्ते दर पर कृषि संयंत्र की उपलब्धता होनी चाहिए। सिंचाई के लिए बिजली, नहर, ट्यूबेल, तालाब और बावड़ी की जरूरत है। सूखा प्रभावित राज्यों में इसके लिए विशेष वित्त की जरूरत है। इसके साथ रासायनिक उर्वरक, कीटनाशक, खाद-बीज पहली प्राथमिकता होनी चाहिए।

किसानों को गन्ना, कपास, ज्वार, बाजरा, तिलहन, दलहन,मोटे अनाजों के लिए उचित बाजार नहीं मिल पाता है। जिन राज्यों में सरकारी सुविधाएं उपलब्ध हैं वहां सरकारी खरीद की नीतियां और अफसरशाही के बर्ताव बिचौलिये चांदी काटते हैं।

महाराष्ट्र में नासिक और पुणे जैसे जिले प्याज उत्पादन को लेकर बेहद अग्रणी है। देश की खपत का 42 फीसदी उत्पादन महाराष्ट्र में होता है। लासलगांव एशिया की सबसे बड़ी प्याज मंडी है। बारिश और दूसरे प्राकृतिक प्रकोप की वजह से प्याज उत्पादक किसानों को नुकसान उठाना पड़ता है। प्याज बाजार में 15 से 20 रुपये प्रति किलो बिक रही है। केंद्र सरकार को ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि उत्पादन के बाद किसानों को फसल का हर स्तर पर उचित मूल्य मिले। लागत मूल्य से किसान को दो गुना फायदा होना चाहिए। महाराष्ट्र और देश के अन्य हिस्सों में किसान उपज के लिए बाजार भाव उपलब्ध न होने पर अपनी खड़ी फसल को नष्ट कर देता है। लॉकडाउन में ऐसा हो भी चुका है।

महाराष्ट्र की मौजूदा सरकार किसानों को लेकर अपने बजट को ऐतिहासिक बता रही है। मीडिया रिपोर्ट्स में कहा जा रहा है कि अभी तक तौकते तूफान से प्रभावित किसानों को मुआवजा तक नहीं मिल पाया है। राज्य में प्याज की अच्छी कीमत न मिलने पर किसान अपनी फसल की जुताई करने को मजबूर है। महाराष्ट्र सरकार ने भी पीएम किसान की तर्ज पर यहां किसानों को 6000 रुपये देने का फैसला किया है और कई लाभकारी योजनाओं की घोषणा की है। किसानों को कितना लाभ होगा यह तो भविष्य बताएगा।

महाराष्ट्र सरकार ने एक रुपये में फसल बीमा उपलब्ध कराने का वादा किया गया है। लेकिन जमीनी बात यह है कि फसल बीमा की नीतियां ही कारगर नहीं हैं। उसका अच्छा लाभ किसानों को नहीं मिल पाता है। सरकारें भी यह बात अच्छी तरह जानती हैं। बीमा कंपनियों के नियम इतने उलझन भरे हैं कि किसान खुद उलझ जाता है। फसलों पर प्राकृतिक मार का आकलन सामूहिक रूप से किया जाता है, जबकि किसान व्यक्तिगत रूप से भी प्रभावित होता है।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)