– कुलभूषण उपमन्यु
मनुष्य जैसे-जैसे सभ्यता की सीढ़ियां चढ़ता गया वैसे-वैसे जीवन को सुखी बनाने के उसने नए-नए रास्ते खोजने आरंभ किए। इसी खोज में धर्म का अविष्कार हुआ। बाहरी प्रयासों से मनुष्य के लिए समाज के भौतिक वस्तुओं को प्राप्त करने की होड़ और टकरावों को रोक पाना उतना आसान नहीं था। धर्म ने आंतरिक अनुशासन से इन टकरावों को कम करके सुखी जीवन की दिशा में महत्वपूर्ण कदम बढ़ाया। धीरे-धीरे धर्म जीवन से जुड़ी समस्याओं को और गहराई से देखने लगा। धर्म के साथ दार्शनिक सोच का आविर्भाव हुआ। दर्शन से तर्क पूर्ण सोच का उदय हुआ। अलग-अलग देशों के धर्मों ने अपने-अपने देशकाल जनित परिस्थितियों के अनुरूप धर्म के लक्ष्य निर्धारित करके संसार के पैदा होने के कारणों और संचालित होने के रहस्यों को जानने का प्रयास किया। उसके अनुरूप धार्मिक पद्धतियों का विकास हुआ। जाहिर है कि अलग -अलग देशकाल के कारण उनके निष्कर्ष अलग-अलग ही थे। इसलिए पद्धतियां भी अलग-अलग बनीं। हालांकि मनुष्य की बुनियादी जरूरतों की साम्यता के चलते उनमें बुनियादी तत्वों में कुछ समानता भी थी। जैसे की ईमानदारी से जीना, ताकि दूसरों को कष्ट न हो, सच बोलना, दूसरों की मदद करना, चोरी न करना, ईश्वर का धन्यवाद करते रहना आदि।
ये मोटे नियम समाज में सुखी जीवन लाने के लिए ही बनाए गए। इन्हें मानने से कानून की मदद लेकर सामाजिक व्यवहार को दिशा देने की जरूरत कम ही पड़ती। कालांतर में जब विभिन्न देशों का आपसी व्यवहार बढ़ा तो एक तरह की प्रतिस्पर्धा भी खड़ी हो गई कि किसके नियम और पद्धति अच्छी है। इस तरह की होड़ में जाहिर है कि अपनी बात तो जैसी भी हो, सबसे अच्छी ही लगती है। इस होड़ ने धार्मिक टकरावों को जन्म दिया और जो धर्म सुखी जीवन को मजबूत करने के लक्ष्य से विकसित हुआ था वह अनावश्यक अहंकारजनित टकरावों का कारण बन गया। इन टकरावों ने दुनिया का नक्शा ही बदल दिया।
आदिमकालीन टकराव जो संसाधनों पर कब्जे के लिए होते थे, उनमें एक नया आयाम जुड़ गया। अब दार्शनिक और धार्मिक मुद्दों पर भी टकराव होने लगे, जो कालांतर में भयानक कत्लोगारत का कारण बने। और इस तरह की हत्याओं को लोग गर्व से देखने लगे कि हमने फलां धर्म को जीत लिया और अपने का झंडा फहरा दिया। यह मानसिकता आज तक फल-फूल रही है। हालांकि हम वैज्ञानिक सोच में बढ़े-चढ़े होने की डींगें मारते नहीं थकते हैं। इन धार्मिक टकरावों की दो बड़ी वजहें स्पष्टत: दिखती हैं। एक- मेरा धर्म ही सबसे अच्छा और सच्चा है। दूसरा- अपने से भिन्न धर्म के लोगों का धर्मांतरण करवाने की होड़। इन दो बातों को छोड़ दें और सभी धर्मों को आदर से देखने की समझ का विकास कर लें तो समस्या का बड़ी हद तक समाधान हो सकता है। जो साधन और समय एक-दूसरे को नीचा दिखाने और टकरावों में खर्च हो रहे हैं वे नई-नई पैदा हो रही समस्याओं के समाधान पर खर्च हो सकते हैं।
आखिर मनुष्य की बुनियादी जरूरतें और आकांक्षाएं तो एक जैसी ही हैं। रोटी, कपड़ा और मकान के साथ शिक्षा, स्वास्थ्य, विपत्तियों को निपटने की क्षमता और सुरक्षा। भारतीय परंपरा में धर्म की परिभाषा ‘धारणात धर्म इत्याहू धर्मेण धारयते प्रजा’ अर्थात धर्म का एक बड़ा लक्ष्य प्रजा को धारण करने की क्षमता को बढ़ाना है। यानी प्रजा पालन और प्रजा को सुखी करने में जो कार्य मददगार हैं ,वे धर्म की श्रेणी में आ जाते हैं। और जो आत्मा और परमात्मा विषयक धर्म का प्रभाग है जिसे निवृत्ति मार्ग कहा गया है वह नितांत निजी मामला है। कोई दूसरा किसी दूसरे की इस बात में मदद नहीं कर सकता। सबको अपने-अपने कर्मों के अनुसार ही फल मिलने वाला है। इसलिए अपने-अपने कार्य और कर्मों को शुद्ध रखना और ईश्वर की शरण में रहकर जीवनयापन करना ही इस प्रभाग में करने की अपेक्षा है।
अब इतने आसान मामले को अनावश्यक रूप से पेचीदा बना कर टकरावों को पैदा करने के लिए कई तरह के अनावश्यक सिद्धांतों को घड़ते-घड़ते हम और हमारा समाज कहां आ पंहुचे हैं, यह सोचने की बात है। न अपने धर्म को छोड़ें और न दूसरे के धर्म को छुड़वाएं। अपने धर्म का जैसा आदर करें वैसा ही दूसरे को भी अपने धर्म का आदर करने दें। क्योंकि सब धर्म ईश्वर संबंधी विषय की ही बात और खोज में लगे हैं। इसलिए स्वयं भी सभी धर्मों का सम्मान करें। इतना सा आसान काम करने से दुनिया में बड़ी शांति कायम हो जाएगी, तो फिर क्यों न आत्मचिंतन करके नम्रता से अपना-अपना रास्ता दुरुस्त कर लें। ईश्वर भी इससे खुश ही होगा।
(लेखक, जल-जंगल-जमीन के मुद्दों के विश्लेषक और पर्यावरणविद् हैं।)