– सुरेन्द्र किशोरी
देवाधिदेव महादेव शिव का अर्थ कल्याण होता है। इस शिवतत्व को जीवन में उतारने वाले का अमंगल कभी नहीं होता। व्यक्ति धीरे-धीरे आत्मोन्नति करता हुआ चरम लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। महाशिवरात्रि का वास्तविक उद्देश्य यही है। महाशिवरात्रि का व्रत फाल्गुन कृष्णा चतुर्दशी को होता है। शिव का स्थान हिंदू धर्म में सर्वोपरि है। शिव ही ऐसे देवता हैं, जो संपत्ति और वैभव के बदले त्याग और अकिंचनता को वरण करते हैं। वह सर्वशक्तिमान हैं। शिव का तीसरा नेत्र बड़ी से बड़ी शक्ति को जलाकर राख करने की क्षमता रखता है। यह सब होने पर भी शिव सदा नंगे-दिगंबर, दीन-हीन, भूत-प्रेतों के साथी बने रहते हैं। उन्होंने अमृत को त्यागकर जहर पिया। हाथी तथा घोड़े को छोड़कर बैल की सवारी स्वीकार की। हीरा, मोती, रत्नों को त्यागकर सर्प और नरमुंडों का आभूषण अपनाया। महाशिवरात्रि का पर्व हम सबको लोभ, मोह, लालसा के स्थान पर त्याग, अपरिग्रह और परहित-साधना की प्रेरणा तथा उपदेश देता है।
शिव का आदर्श बतलाता है कि जिसको जितनी अधिक शक्ति मिली है, उसका उत्तरदायित्व भी उतना ही महान है। ऐसी विशेष सामर्थ्य जो अन्य साधारण लोगों में दिखाई नहीं पड़ती, परमात्मा के वरदान स्वरूप समझनी चाहिए। उसका उपयोग स्वार्थ-साधन जैसे तुच्छ उद्देश्य के लिए करना रत्न को कांच के मूल्य में बेच देने के बराबर है। मानव जीवन की सफलता इसी में है कि हम व्यक्तिगत लाभ और सुख का ख्याल छोड़कर अपनी शक्तियों का उपयोग परोपकार के लिए ही करें। भगवान शिव का दिगंबर रूप अपरिग्रह का भी प्रतीक है। संसार में तरह-तरह की भोग सामग्री का कोई अंत नहीं है। वह मनुष्य को ज्यों-ज्यों प्राप्त होती जाती है, त्यों-त्यों उसकी लालसा भी बढ़ती जाती है। आज संसार में जितने झगड़े-झंझट दिखाई पड़ते हैं, उन सबके मूल में यही परिग्रह की कामना है।
इसे चाहे लोभ कहें, मोह कहें या अज्ञान, लेकिन वर्तमान समय में मनुष्यों की यह स्वार्थमयी प्रवृत्ति दिन पर दिन बढ़ती जा रही है। ऐसी मनोवृत्ति के होते हुए संसार में शांति और सुख की कल्पना करना ही व्यर्थ है। इसका परिणाम नाश-सर्वनाश के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता है। जिस व्यक्ति में परोपकार की भावना जाग्रत हो जाती है, भगवान स्वयं उसकी सहायता करते हैं। उसकी आत्मिक शक्तियों का विकास होने लगता है। दूसरों को अधिक से अधिक देना और स्वयं कम-से-कम ग्रहण करने की भावना ही महान व्यक्तियों का लक्षण है।
मनुष्य तो उसी की भक्ति, उपासना, पूजा करेगा, जिससे उसे अपने हित की कुछ आशा हो। इसी कारण अपनी मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए लोग विभिन्न देवी देवताओं का पूजा-पाठ करते हैं। कई देवता प्रसन्न होकर अपने भक्त का कुछ उपकार कर देते हैं। लेकिन, उनमें से अधिकांश अपने ही वैभव और अधिकार को कायम रखने की फिक्र करते रहते हैं। इस कारण उनसे मनुष्यों का विशेष हितसाधन नहीं होता। भगवान शिव औघरदानी कहे जाते हैं और बेल के पत्तों तथा धतूरे के फलों से ही संतुष्ट हो जाते हैं। उनको अपने लिए किसी भी प्रकार के वैभव की तनिक भी आवश्यकता नहीं है। वह अनायास ही कष्ट और अभाव से पीड़ित जनों की कामनाएं सिद्ध करते रहते हैं। इसीलिए अन्य देवों के मुकाबले में देवों के देव महादेव कहे जाते हैं।
पर्व-त्योहार जन-जन में नैतिकता एवं सच्चरित्रता के भावों को जन्म देकर सांस्कृतिक पुनरुत्थान में सहायक भूमिका निभाते हैं। इस समय संसार में धन का बोलबाला है। इस मनोवृत्ति ने मनुष्य को कितना पतन के गर्त में गिराया है, उसका वर्णन करना संभव नहीं। धन के लिए मनुष्य कुटुंब, परिवार को छोड़ देता है, भाइयों से शत्रु की तरह लड़ता है। माता-पिता की तरफ से भी आंखें फेर लेता है, मान-अपमान की कुछ भी परवाह नहीं करता; धर्म-कर्म का ध्यान भुला देता है। इस प्रकार मनुष्य ने धन को भगवान से भी ऊंचा स्थान दे दिया है।
इसी का परिणाम है कि आज सच्चे धार्मिक जनों के दर्शन भी दुर्लभ हो गए हैं। इस सोचनीय अवस्था में हमारा कर्तव्य है कि हम देवाधिदेव महादेव की शरण लें कि वे हमको इस धन के प्रपंच से मुक्त करके अपरिग्रह की महिमा समझने का वरदान दें।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)