Friday, November 22"खबर जो असर करे"

मूल धर्म में वापसी का स्वागत होना चाहिए

– डॉ. मोक्षराज

मजहबी कट्टरवाद ने धरती को नरक बना दिया है। मनमालिन्य से उत्पन्न घृणा एवं वर्चस्व के खोखले लक्ष्य मनुष्य के जीवन में भय, अविश्वास एवं हिंसा के बीज बो रहे हैं। कितना अच्छा हो कि सम्पूर्ण धरती पर रहने वाले सभी मनुष्य एक-दूसरे के प्रति ऐसी दया व सहानुभूति रखें, जैसी कि वे स्वयं के प्रति चाहते हैं। यह धरती सबका पोषण करने में सक्षम है, किंतु मूर्ख, धूर्त, क्रूर, स्वार्थी एवं अदूरदर्शी मुट्ठीभर मजहबी ठेकेदार इस धरती को स्वर्ग बनाने में बहुत-बड़े अवरोध हैं। वसुधैव कुटुम्बकम के उदार वाक्य की समझ विकसित होने में इन पढ़े-लिखे गंवारों को बहुत समय लगेगा।

मित्रो ! इस बात को कभी झुठलाया नहीं जा सकता कि विश्व में वेद से पुराना व सार्वभौमिक कोई ज्ञानग्रंथ नहीं है। करोड़ों वर्ष पुराने वैदिक काल में कोई मत-सम्प्रदाय या मजहब नहीं था। इसलिए वेदों में केवल मनुष्य को सच्चा व अच्छा मनुष्य बनने की ही शिक्षा है। मनुष्य हिंसक जानवर की भांति न बने, उसमें पशुता व आसुरी भाव समाप्त हों, वह कल्याणकारी विचारों वाला हो। वेद कहता है ‘मनुर्भव’ हे मनुष्य ! तू मननशील बन ! अत: मनुष्य को यह विचारना चाहिए कि उसका व सम्पूर्ण धरती का कल्याण किस रीति में है ? वह अदृश्य, कल्पित व परोक्ष स्वर्ग/जन्नत या हैवन के चक्कर में इस प्रत्यक्ष स्वर्गस्वरूप धरती पर सबका जीना दूभर न करे बल्कि धरती की रक्षा के लिए यत्नशील रहे। इन पोंगा-पंडितों, पोप-पुजारियों, मुल्ला-मौलवियों द्वारा बताया गए क्षीरसागर, चौथे या सातवें आसमान पर आज तक किसी रॉकेट या सैटेलाइट से कोई स्वर्ग-जन्नत डिटेक्ट नहीं हुआ है । अत: हम सबको मिलकर ही धरती को स्वर्ग बनाना होगा।

यदि हम अहिंसा, सत्य, करुणा, प्रेम, क्षमा जैसे वास्तविक धर्म की बात करें तो सभी मत-सम्प्रदायों को अपनी जड़ों से जोड़े रखने व अपने पूर्वजों के मंगलकारी सिद्धांतों के पालन के लिए अनेक मनीषियों द्वारा समय-समय पर चलाए गए सुधार कार्यक्रमों को समझना होगा । भविष्य में परस्पर एकजुट व अविरोधी रहने की पद्धति विकसित करने के लिए हमें उदार व घृणा से मुक्त होने की आवश्यकता है । हम जानते हैं कि सच्चे मानव का हृदय सरल होता है । अत: जब कोई संतान अपने सरल हृदय वाले माता-पिता से पूछे कि हमारे पूर्वज कौन हैं, तो उन्हें सत्य को स्वीकारते हुए उत्तर देने में प्रसन्नता व गौरव अनुभव होना चाहिए। उन्हें तनिक भी संकोच, भय, घृणा, हीन भावना या अहंकार न हो और न ही पुनः अपने पूर्वजों की जीवन शैली को अपनाने में झिझक हो। जिस दिन यह झिझिक व अलगाव समाप्त हो जाएगा, तब सम्पूर्ण धरती एक परिवार बन जाएगी।

वस्तुतः मन का मैल धुल जाना ही वास्तविक शुद्धि है। पुनरपि दुष्ट अपराधी को दण्ड से, अज्ञानी को ज्ञान से, भटके हुए को सच्चे इतिहास व श्रद्धा से, विवेकी को तर्क से, परम्परावादी को उचित सम्मान से शुद्ध कर सम्पूर्ण समाज को सुखमय बनाया जा सकता है। किसी भी उपदेशक के कथन की सीमा भी केवल इतनी ही हो कि उसके वक्तृत्य से धरती पर रहने वाले मनुष्यों व अन्य प्राणियों के जीवन में सुख, शांति व अपने आदि पूर्वजों के प्रति सम्मान उत्पन्न हो, क्योंकि नए-नए पत्ते आने से उन्हें वृक्ष के मूल तने जैसा सामर्थ्य कभी नहीं मिल सकता ।

किसी भी स्त्री पुरुष को अपने शारीरिक बल, शस्त्रबल व बहकावे से नियंत्रण में रखना न तो पहले कभी धर्म माना जाता था और न आज ही उसे धर्म कहा जाएगा, बल्कि ऐसे पिछड़े आउटडेटेड विचारों से धरती का नुकसान ही हुआ है और होता रहेगा। धरती की रक्षा के लिए इसे रोकना ही होगा । ‘शुद्धि’, ‘शुद्धि आंदोलन’, ‘घर वापसी’ और ‘परावर्तन’ आदि किसी भी नाम से कहो यह पुन: अपनों से मिलने व पिछड़ों को गले लगाने की परंपरा बहुत पुरानी है । आदि शंकराचार्य ने जैन व बौद्ध बए आर्यों को पुनः मूलधारा से जोड़ा । महाराजा शिवाजी ने मराठा एवं गोवा क्षेत्र के तथा गुरु गोबिन्द सिंह ने सभी वर्गों के बिछड़ों व पिछड़ों को पुनः अपने गौरवशाली पूर्वजों की परम्परा से जोड़ा । महर्षि स्वामी दयानंद सरस्वती ने अनगिनत जैन एवं मुसलमानों को आर्यपरंपरा में आने के लिए विवेकी बनाया । उनके शिष्य पंडित लेखराम ने कई गांवों को भ्रमित होने से बचाते हुए प्राण गंवा दिए तथा उन्हीं महर्षि दयानंद सरस्वती के महान शिष्य स्वामी श्रद्धानंद ने 11 फरवरी, 1923 को भारतीय हिंदू शुद्धि सभा की स्थापना कर आगरा, सहारनपुर, पंजाब व केरल में रहने वाले लाखों लोगों के द्रवित हृदय में बसे अंधेरे, करुण क्रंदन एवं लाचारी में प्रेम, श्रद्धा तथा निर्भयता के दीप जलाए । इस सभा ने पं. मदनमोहन मालवीय की उदारतापूर्ण सहायता प्राप्त की।

भारत के संदर्भ में शुद्धि का स्वरूप राजनीतिक स्वरूप वाला है, क्योंकि धर्म के आधार पर भारत का विभाजन हो गया था। इसलिए अब जो लोग स्वेच्छा से अपने मूल धर्म को स्वीकार करना चाहते हैं, उन्हें सरकार की ओर से सुरक्षा व सम्मान मिलना ही चाहिए । अब भारत न तो अंग्रेजों का गुलाम है और न ही क्रूर मुगलों का। भारत अपने विराट सांस्कृतिक स्वरूप को सुरक्षित रखने के लिए पहल कर सकता है। एक ओर जहां शुद्धि सभा के संस्थापक स्वामी श्रद्धानंद की हत्या होती है और दूसरी ओर आजादी के बाद भी धर्मांतरण करने वालों पर कोई दूरगामी कार्रवाई नहीं। ऐसा क्यों ? जबकि शुद्धि का कार्य बिलखती हुई मानवता के मुख पर स्नेह का लेप तथा स्वतंत्रतापूर्वक जीने का आनंद स्रोत है । भटके हुए लोग इसे जितना जल्दी अपनाएंगे, उनके भविष्य के लिए यह उतना ही कल्याणकारी है । आज भी शुद्धि सभा, आर्यसमाज तथा न्यायालय विधिपूर्वक इस कार्य को करने में सक्षम हैं । कौन अपनों के सीने से लगना नहीं चाहता ? कौन भारत के वैभव व संस्कार में जीना नहीं चाहता?

(लेखक, वॉशिंगटन डीसी स्थित जॉर्ज टाउन यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर रहे हैं।)