Saturday, November 23"खबर जो असर करे"

भारत में गरीबी-अमीरी की खाई

– डॉ. वेदप्रताप वैदिक

आजकल हम भारतीय लोग इस बात से बहुत खुश होते रहते हैं कि भारत शीघ्र ही दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने जा रहा है। लेकिन दुनिया के इस तीसरे सबसे बड़े मालदार देश की असली हालत क्या है? इस देश में गरीबी भी उतनी ही तेजी से बढ़ती जा रही है, जितनी तेजी से अमीरी बढ़ रही है। अमीर होने वालों की संख्या सिर्फ सैकड़ों में होती है लेकिन गरीब होनेवालों की संख्या करोड़ों में होती है। ऑक्सफॉम के ताजा आंकड़ों के मुताबिक पिछले दो साल में सिर्फ 64 अरबपति बढ़े हैं। सिर्फ 100 भारतीय अरबपतियों की संपत्ति 54.12 लाख करोड़ रुपेय है यानी उनके पास इतना पैसा है कि वह भारत सरकार के डेढ़ साल के बजट से भी ज्यादा है।

सारे अरबपतियों की संपत्ति पर मुश्किल से दो प्रतिशत टैक्स लगता है। इस पैसे से देश के सारे भूखे लोगों को अगले तीन साल तक भोजन करवाया जा सकता है। यदि इन मालदारों पर थोड़ा ज्यादा टैक्स लगाया जाए और उपभोक्ता वस्तुओं का टैक्स घटा दिया जाए तो सबसे ज्यादा फायदा देश के गरीब लोगों को ही होगा। अभी तो देश में जितनी भी संपदा पैदा होती है, उसका 40 प्रतिशत सिर्फ एक प्रतिशत लोग हजम कर जाते हैं जबकि 50 प्रतिशत लोगों को उसका तीन प्रतिशत हिस्सा ही हाथ लगता है। अमीर लोग अपने घरों में चार-चार कारें रखते हैं और गरीबों को खाने के लिए चार रोटी भी ठीक से नसीब नहीं होती।

ये जो 50 प्रतिशत लोग हैं, इनसे सरकार जीएसटी का कुल 64 प्रतिशत पैसा वसूलती है जबकि देश के 10 प्रतिशत सबसे मालदार लोग सिर्फ तीन प्रतिशत टैक्स देते हैं। इन 10 प्रतिशत लोगों के मुकाबले निचले 50 प्रतिशत लोग छह गुना टैक्स भरते हैं। गरीब और मध्यम वर्ग के लोगों को अपनी रोजमर्रा के जरूरी चीजों को खरीदने पर बहुत ज्यादा टैक्स भरना पड़ता है, क्योंकि वह बताए बिना ही चुपचाप काट लिया जाता है। इसी का नतीजा है कि देश के 70 करोड़ लोगों की कुल संपत्ति देश के सिर्फ 21 अरबपतियों से भी कम है।

साल भर में उनकी संपत्तियों में 121 प्रतिशत का इजाफा हुआ है। अब जो नया बजट आने वाला है, शायद सरकार इन ताजा आंकड़ों पर ध्यान देगी और भारत की टैक्स-व्यवस्था में जरूर कुछ सुधार करेगी। देश कितना ही मालदार हो जाए लेकिन यदि उसमें गरीबी और अमीरी की खाई बढ़ती गई तो वह संपन्नता किसी भी दिन हमारे लोकतंत्र को परलोकतंत्र में बदल सकती है। यह हमने पिछली दो सदियों में फ्रांस, रूस और चीन में होते हुए देखा है।

(लेखक, भारतीय विदेश परिषद नीति के अध्यक्ष हैं।)