– डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। कई देशों में लोकतंत्र खत्म हुआ और तानाशाही आ गई लेकिन भारत का लोकतंत्र जस का तस बना हुआ है लेकिन क्या इस तथ्य से हमें संतुष्ट होकर बैठ जाना चाहिए? नहीं, बिल्कुल नहीं। भारतीय लोकतंत्र ब्रिटिश लोकतंत्र की नकल पर गढ़ा गया है। लंदन का राजा तो नाम मात्र का होता है लेकिन भारत में पार्टी-नेता सर्वेसर्वा बन जाते हैं। सभी पार्टियां प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों की तरह या तो कुछ व्यक्तियों या कुछ परिवारों की निजी संपत्तियां बन गई हैं। उनमें आंतरिक लोकतंत्र शून्य हो गया है। चुनाव से जो सरकारें बनती हैं, वे बहुमत का प्रतिनिधित्व क्या करेंगी? उन्हें कुल मतदाताओं के 20 से 30 प्रतिशत वोट भी नहीं मिलते और वे सरकारें बना लेती हैं। हमारी संसद और विधानसभाओं को पक्ष और विपक्ष के दल एक अखाड़े में तब्दील कर डालते हैं। चुनाव में खर्च होने वाले अरबों-खरबों रुपये नेताओं को भ्रष्टाचारी बना डालते हैं। तब क्या किया जाए?
पिछले दिनों मैंने इन समस्याओं पर ‘आचार्य कृपलानी स्मारक व्याख्यान’ दिया था। उसके कुछ बिंदु संक्षेप में देश के सुधिजन के विचारार्थ प्रस्तुत कर रहा हूं। सबसे पहले तो हम चुनाव-प्रणाली ही बंद कर दें। इसकी जगह हर पार्टी को उसकी सदस्य-संख्या के अनुपात में सांसद और विधायक भेजने का अधिकार मिले। इसके कई फायदे होंगे। चुनाव खर्च बंद होगा। भ्रष्टाचार मिटेगा। करोड़ों लोग राजनीतिक रूप से सक्रिय हो जाएंगे। अभी सभी पार्टियों की सदस्य-संख्या 15-16 करोड़ के आसपास है। फिर वह 60-70 करोड़ तक हो सकती है। इस नई प्रणाली का सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि जो भी सरकार बनेगी, उसमें सभी दलों को प्रतिनिधित्व मिल जाएगा। वह सरकार राष्ट्रीय सरकार होगी, दलीय नहीं, जैसी कि आजादी के तुरंत बाद बनी थी। इस क्रांतिकारी प्रणाली की कई कमियों को कैसे दूर किया जा सकेगा, यह विषय भी विचारणीय है।
जब तक यह नई प्रणाली शुरू नहीं होती है, हमारी वर्तमान प्रणाली में भी कई सुधार किए जा सकते हैं। सबसे पहला सुधार तो यही है कि जब तक किसी उम्मीदवार को 50 प्रतिशत से ज्यादा वोट नहीं मिलें, उसे चुना नहीं जाए। इसी प्रकार चुने हुए सांसदों की सरकार सचमुच बहुमत की सरकार होगी। उम्मीदवारों की उम्र 25 साल से बढ़ाकर 40 साल की जाए और 50 साल के होने पर ही उन्हें मंत्री बनाया जाए। संसद सदस्यों की संख्या 1 हजार से डेढ़ हजार तक बढ़ाई जाए। सभी जन-प्रतिनिधियों की आय और निजी संपत्तियों का ब्यौरा हर साल सार्वजनिक किया जाए। देश में ‘रेफरेन्डम’ और ‘रिकाल’ की व्यवस्था भी लागू की जानी चाहिए। सारे कानून राजभाषा में बनें और सभी अदालतें अपने फैसले स्वभाषाओं में दें। सांसदों और विधायकों की पेंशन खत्म की जाए। उनके, अफसरों और मंत्रियों के खर्चों पर रोक लगाई जाए। अन्य सुझाव, कभी और।
(लेखक, भारतीय विदेश परिषद नीति के अध्यक्ष हैं।)