
उन्होंने कहा कि वक्फ़ अधिनियम एक लक्षित अतिक्रमण है। यह अधिनियम प्रशासनिक कार्यकुशलता के नाम पर स्थापित न्यायिक सिद्धांतों को कुचलता है। हमारे मानवाधिकार के पार्ट-3 में दो अनुच्छेद बेहद जरूरी हैं। इनमें 25, 26 विशेष हैं। 26 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि हर व्यक्ति को पूरा अधिकार है कि वह अपने धर्म का अभ्यास, निर्वहन और उसका प्रचार-प्रसार कर सकता है। वह धर्म से जुड़ी संस्थाओं को चलाने, उनका प्रबंधन देखने और उनके चुनावों में नामित हो सकता है। कोई ये नहीं कह रहा कि इन अधिकारों की कोई सीमा नहीं है। इसी के तहत संविधान में इसकी सीमा भी लिखी गई है और वे सीमाएं- पब्लिक ऑर्डर, सार्वजनिक व्यवस्था, स्वास्थ्य और नैतिकता हैं। हालांकि, आप देखेंगे तो इनका वक्फ़ अधिनियम से कोई संबंध नहीं है। इसमें कोई ऐसा प्रावधान नहीं है जो सार्वजनिक क़ानूनी व्यवस्था को बचाने के लिए किया गया हो, स्वास्थ्य और सार्वजनिक नैतिकता के लिए किया गया हो।
सिंघवी ने कहा कि 50-60 के दशक में पांच खंडपीठ का एक निर्णय दिया गया, जिसमें कहा गया कि किसी रूप में किसी ऐसे वर्ग की संस्थाओं की स्वायत्तताओं को हटाएंगे, उनके ऊपर नियंत्रण इतना करेंगे कि उनकी स्वायत्तता ख़त्म हो जाए- तो वह असंवैधानिक है। उन्होंने कहा कि वक्फ अधिनियम दक्षता का अभ्यास नहीं है, जैसा कि यह खुद को प्रस्तुत करता है, बल्कि मिटाने का अभ्यास है। नीरस शासन के पीछे नियंत्रण की साहसिक महत्वाकांक्षा छिपी हुई है। यह संस्थानों को सुधारने के बारे में नहीं बल्कि उनमें घुसपैठ करने, उन्हें नियंत्रित करने और बंद करने के बारे में है।
इस मौके पर इमरान प्रतापगढ़ी ने सुप्रीम कोर्ट के स्टे का स्वागत किया। उन्होंने कहा कि जेपीसी में और बजट सत्र में बिल पर चर्चा के दौरान संसद में जिन सुझावों को नकार दिया गया था, आज सुप्रीम कोर्ट ने उन्हीं पर स्टे दिया है। (हि.स.)