Sunday, November 24"खबर जो असर करे"

राजनीतिक दलों में मतभेद हों, मनभेद नहीं

सुरेश हिन्दुस्थानी

‘हम भारत के लोग’ यह मात्र एक शब्द नहीं, बल्कि यह राष्ट्रीय एकात्मता की प्रतिध्वनि को प्रकट करने वाला ऐसा शब्द है, जिससे हम प्रेरित हैं। जब हम इस शब्द को उच्चारित करते हैं तो सहज ही हमारे मन में एक ऐसी भावना निर्मित होती है, जो सबको एक परिवार की भांति देखने के लिए काफी है। लेकिन आज हमारे देश के राजनीतिक दल भारत की इस मूल भावना को विस्मृत करते हुए दिखाई दे रहे हैं। यह बात सही है कि विचारों की भिन्नता हो सकती है, लेकिन मन में भिन्नता नहीं आनी चाहिए। अगर मन में भिन्नता का अंकुरण प्रस्फुटित होता है तो स्वाभाविक रूप से उसकी परिणति आक्रोश ही होगा। इसलिए आदर्श राजनीतिक विचार की परिभाषा यही है कि मतभेद तो होना चाहिए, लेकिन मनभेद नहीं। आज देश में मनों में भेद उत्पन्न करने की राजनीति की जा रही है। एक तरफ पाकिस्तान जैसा देश अपने नेटवर्क के माध्यम से भारत में मन भेद की कुत्सित चाल चल रहा है, वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस और वामपंथी दल के नेता ऐसी चालों के साथ कदम मिलाकर कार्य करते हुए दिखाई देते हैं। कुल मिलाकर सत्य यही है कि उकसाने वाली राजनीति से देश का भला नहीं हो सकता।

वर्तमान में विरोधी राजनीतिक दलों के नेता जिस तरह से बयान दे रहे हैं, उसे राजनीतिक भ्रष्टाचार फैलाने वाला निरूपित किया जाए ज्यादा ठीक ही होगा। भ्रष्टाचार का आशय केवल आर्थिक भ्रष्टाचार ही नहीं होता, इसका मतलब यह भी है कि जो भ्रमित करने का आचरण करे, वह वह भी भ्रष्टाचार ही है। राजनीति में मतभेद होना कोई नहीं बात नहीं है, लोकतंत्र की स्वस्थ परंपराओं के अंतर्गत मतभेद हो सकते हैं। लेकिन जो मत प्रस्तुत किया जा रहा है, उसकी प्रामाणिकता भी होना चाहिए, इसी से लोकतंत्र को मजबूती मिलती है। अगर तथ्यहीन मत प्रस्तुत किया जाता है तो वह बहुत बड़े भेद का कारण बनता है। वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य को देखकर कहा जा सकता है कि अब मतभेद ही नहीं, बल्कि मनभेद की राजनीति मुखर होती जा रही है। जहां तक मतभेद की बात है तो मतभेद तो परिवार में भी हो सकते हैं, लेकिन वहां मनभेद को कोई स्थान नहीं होता। अगर मनभेद हुआ तो पूरा परिवार बिखर जाता है। इसी प्रकार राष्ट्र के बारे में भी सोचा जाना चाहिए। मतभेद अवश्य हों, लेकिन मनों में भेद नहीं होना चाहिए।

देश की राजनीति भी कुछ ऐसे ही रास्ते पर अपने कदम बढ़ाती हुई दिखाई दे रही है। नए-नए शब्दों को परोसने का खेल खेला जा रहा है, उसके कारण देश ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी भारत की छवि बिगड़ रही है। भारत देश के नागरिक होने के नाते हमें कम से कम इस बात का तो ध्यान रखना ही होगा कि हम अपने देश को मजबूती के साथ विदेशों के सामने लाएं। अगर हम खुद ही अपनी कमजोरियां बताने लगेंगे तो फिर देश को बचाने की कवायद कौन करेगा, यह सोचने का विषय है। आज देश में जो राजनीति का स्वरूप दिखाई दे रहा है, वह अपने मूल उद्देश्य से भटकाव की कहानी प्रदर्शित कर रही है। विरोधी राजनीतिक दल केवल आरोप लगाने वाली राजनीति करने तक ही सीमित रहे गए हैं। वास्तव में आज देश में दो प्रकार के दृश्य दिखाई देते हैं, जिसमें एक सत्ता का समर्थन करता है तो दूसरा सत्ता के विरोध में ही अपनी सारी कवायद करता है। विसंगति तो यह है कि केन्द्र सरकार की अच्छी नीतियों का समर्थन करने वाली जनता को भी यह राजनीतिक दल मोदी समर्थक मानकर व्यवहार करते हैं, जबकि सत्यता यह है कि उस जनता के मन में सच को सच और गलत को गलत कहने की हिम्मत है। जिसके मन में इस प्रकार का चिंतन करने का विचार है, वह अपनी कमियां भी देख सकता है और सरकार की अच्छाइयां भी देख सकता है, लेकिन जो पूर्वाग्रह से ग्रसित है, वह स्वयं को अच्छा मानता है और दूसरे से अपेक्षा करता है कि वह भी उसे अच्छा ही माने।

हम यहां कांग्रेस विरोध की बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि राष्ट्रीय नीति के अंतर्गत विचारों के पक्ष और विपक्ष का ही चिंतन कर रहे हैं। भारत के सभी नेताओं को यह ध्यान रखना चाहिए कि वह सबसे पहले भारत के नागरिक हैं, इस नाते उन्हें विदेशों में जाकर कोई भी ऐसी बात नहीं करना चाहिए, जिससे भारत का सिर झुक जाए, लेकिन कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने कई बार ऐसा ही किया है। अपने देश की सरकार की विदेशों में जाकर आलोचना करना किसी भी दृष्टि से ठीक नहीं है। राजनीतिक दलों की दृष्टि से केन्द्र सरकार भले ही राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की है, लेकिन विदेश की दृष्टि में वह भारत सरकार है और नरेन्द्र मोदी पूरे भारत के प्रधानमंत्री हैं। विपक्षी दलों को यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि नरेन्द्र मोदी लोकतांत्रिक तरीके से चुनकर आए हैं, इसलिए विरोधी राजनीतिक दलों को कम से कम देश की जनता के निर्णय का सम्मान करना चाहिए, लेकिन देश में ऐसा नहीं हो रहा है।

वर्तमान में विपक्षी राजनीतिक दल ऐसा व्यवहार कर रहे हैं कि देश में सारी समस्याओं की जड़ वर्तमान केन्द्र सरकार है। जबकि सच यह है कि नरेन्द्र मोदी की सरकार ने ईमानदार और भ्रष्टाचार रहित सरकार दी है। वैसे कांग्रेस नेता राहुल गांधी को कोई भी आरोप लगाने से पहले अपने गिरेबां में झांककर भी देखना चाहिए, तब उन्हें यह स्पष्ट समझ में आ जाएगा कि जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय। मोदी से पूर्व का कांग्रेसनीत सरकार का दस वर्षीय कार्यकाल आज भी भ्रष्टाचार के पर्याय के रूप में जाना जाता है। इतना ही नहीं कांग्रेस ने तो उस लालू प्रसाद यादव को भी सहारा दिया है, जो जनता की गाढ़ी कमाई को भ्रष्टाचार के रूप में हजम कर गया। वास्तव में कांग्रेस ने राजनीति को व्यवसाय बनाकर रख दिया। अब मोदी सरकार राजनीति को सेवानीति के मार्ग पर ले जाने के उद्देश्य से काम कर रही है, तो उसकी राह का रोड़ा यही विपक्षी राजनीतिक दल बनते जा रहे हैं।

केन्द्र में मोदी सरकार के आने के बाद प्रादेशिक विफलताओं को भी केन्द्र की कमजोरी बताकर प्रचारित करने का चलन बनता जा रहा है। इसके लिए कांग्रेस और अन्य राजनीतिक दल सुनियोजित तरीके से काम कर रहे हैं। इसी प्रकार एक नया शब्द मॉब लिंचिंग का अविष्कार भी विरोधी नेताओं ने किया है। जबकि यह पूरा देश जानता है कि मॉब लिंचिंग की सबसे बड़ी घटना सिख नरसंहार था। इस शब्द का आविष्कार करने वाले नेताओं का दिमाग उस समय क्यों नहीं चला? केन्द्र में मोदी सरकार के विरोध में अभी और भी प्रयोग किए जा सकते हैं, जिसके लिए हो सकता है कि देश में वामपंथी विचारक और नए शब्द गढ़ने का प्रयास करें। ऐसे सभी प्रयास देश में राजनीतिक अस्थिरता का कारण तो बनेंगे ही साथ ही जनता को गुमराह करने का काम भी करेंगे, इसलिए भारत के राष्ट्रीय दृष्टिकोण रखने वाले चिंतक और विचारकों को अत्यंत सावधानी बरतने की आवश्यकता है। ऐसे वातावरण में हमारी निष्क्रियता देश की बर्बादी का कारण भी बन सकती है। कहा जाता है कि देश की समस्याओं को बढ़ाने में जितना योगदान नकारात्मक सक्रियता का है, उससे कहीं ज्यादा सकारात्मक निष्क्रियता भी है। सकारात्मक दृष्टिकोण रखने वाले विचारकों को देश के अच्छे भविष्य के लिए बहुत ज्यादा सक्रियता दिखाने की आवश्यकता है। इसके प्रयास आज और अभी से करने की आवश्यकता है। कहीं ऐसा न हो कि देर हो जाए।

(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)