प्रभुनाथ शुक्ल
हमारा लोकतंत्र कितना समदर्शी है। यहां इंसान की परेशानी और चिंताओं के साथ शेर, बाघ, मोर, घोड़े, गदहे भी गंभीर चिंतन का विषय बन जाते हैं। मीडिया की कृपा विशेष रूप से सोशल मीडिया की वजह से यह बहस सर्वव्यापी बन जाती है। जब बात राष्ट्रीय प्रतीकों और प्रतिमानों से जुड़ी हो तो यह और गंभीर हो जाता है।आजकल शेर और सवा शेर का प्रतीक सुर्खियों में है। अब आप ही बताइए क्या शेर से शांति की उम्मीद की जा सकती है। उस हालत में जब इंसान खुद आदमखोर बन गया है। फिर वह शेर से शांत और विनम्र बनने की उम्मीद भला कैसे कर सकता है।
अब एक जमात शेर को गीदड़ बनाना चाहती है। आंगन कुटी में रहने वाले निंदक शेर को सवा सेर बनते नहीं देखना चाहते हैं। वह उसे गीदड़ बनाने पर तुले हैं। अब उन्हें कौन बताए वह खुद की भांति शेर को भी बनाना चाहते हैं। इसी शांतिपाठ में खुद का राज सिंहासन खाली हो गया और अब मेमना बने फिर रहे हैं फिर भी शेर से कह रहे हैं कि तुम हमारे जैसे नहीं हो। अब तुम गुर्राने और चिघाड़ने लगे हो। तुम और बड़े हो गए हो जिसकी वजह से तुम्हारी दहाड़ हमें डराने लगी है। वे अपनी तरह बेचारे शेर को नख और दंतविहीन बना देना चाहते हैं। उसे शेर नहीं सियार बनाकर रखना चाहते हैं। क्योंकि वह शेर कि खाल को खुद ओढ़कर शेर बनना चाहते हैं। इसलिए शेर से वे मूल स्वभाव त्यागने की बात कर रहे हैं। यह तो अच्छी बात नहीं हुई।
एक जमात है जो सिर्फ बात का बतंगड़ बनाती है । उन्हें अपच की बीमारी है। अब राष्ट्रीय प्रतीक शेर भी मुद्दा बन गया है। शेर दो खेमों में बंट गया है। सवाल शेर का नहीं उसके स्वभाव का है। वे सत्ता पर हमेशा सवा शेर की भूमिका में रहना चाहता है, लेकिन हाल के दिनों में उनका मौसम का हाल बेहाल है। सत्ता का शेर, सवा सेर बन गाया है जिसकी वजह से उनकी की चिंता बढ़ गई है। क्योंकि अभी तक शेर बेहद शांत, सौम्य और उदार मुद्रा में था, लेकिन अब वह आदमखोर शैली में आ गया है। इसकी वजह से पड़ोसियों का हाजमा गड़बड़ हो गया है। उनकी चिंता बेगारी, महंगाई और आतंकवाद नहीं है। उनकी परेशानी अब शेर का प्रतीक है। क्योंकि हम प्रतीकों के आदी हो चुके हैं। हम जमीन से नहीं प्रतीकों से जुड़े हैं। इसलिए प्रतीकों में परिवर्तन भी हमें डराते हैं।
आप क्या शेर को हमेशा गीदड़ बनाकर रखना चाहते हैं। आपकी शांति, शौर्य और उदाराता की सीख ने उसे अब तक बिना दंत और नख के रखा था। उसकी मूल आजादी को आपने छीन लिया था। तभी हमारे आसपास के गीदड़ भी गुर्राने लगे थे । उसे खा जाने की धमकी देने लगे थे। अभी तो उसे जंगली आजादी मिली है। अब वह गीदड़ों की हुआं हुआं से नहीं डरता। अब वह खूंखार और आदमखोर मुद्रा में है। कभी उसकी दहाड़ को नजरअंदाज करने वाले लोग अब उसकी एक खांसी को भी दहाड़ समझ नतमस्तक हैं। शेर अब अपनी जंगली सभ्यता यानी प्राकृतिक स्वभाव की तरफ लौट आया है। आपने बचपन में कभी एक कहानी पढ़ी होगी जिसमें शेर की नाक पर चूहा नाचता था। वह एक वक्त था जब शेर खुद को शेर होना भूल गया था। लेकिन अब उसकी स्मृति लौट आई है। अब उसे दहाड़ने दीजिए।
शेर जंगल का राजा है। उसकी छवि एक कुशल प्रशासक और निर्भीक, निडर राजा की है। इसकी वजह से जंगल में भी जंगल का कानून लागू नहीं होता। शेर अपनी इसी छवि की वजह से जंगल में लोकतांत्रिक व्यवस्था कायम रखता है। अगर वह मूल स्वभाव को बदल दे तो जंगल में अराजकता फैल जाएगी। जंगल का कुशल प्रशासन अकुशल लोगों के हाथों में चला जाएगा। कानून व्यवस्था कि किसी को परवाह ही नहीं रहेगी। सब अपनी मर्जी के मालिक हो जाएंगे। गीदड़ों के हाथ में शासन व्यवस्था चली जाएगी। पड़ोसी जंगल के चूहे भी शेर की नाक पर ताता-थैया करने लगेंगे। फिर शेर का शेर होना भी बेमतलब साबित होगा।
हम मानते हैं आपकी बात कि हमारा पहला शेर उदार, सौम्य,अहिंसक और शांत था। उस दौरान उसका बाल्यकाल यानी शैशवकाल था। लेकिन अब वह जवान, शक्तिशाली हो चला है। अब उसके दहाड़ने और गुर्राने का वक्त है। बदले हालात में अपनी शक्ति और शौर्य को प्रदर्शित करने की भी जरूरत है। अब उसकी दहाड़ की गूंज जंगली सभ्यता वालों तक भी पहुंचने लगी है। उसने गीदड़ों की मांद में घुस कर कई शिकार भी किए हैं। इसलिए अब उन्हें बदले शेर का आक्रामक रुख पसंद नहीं आ रहा है। फिर आप इतने चिंतित क्यों हैं। सांप अगर अपना स्वभाव बदल डाले तो उसे लोग रस्सी समझ बैठेंगे। अपने प्राकृतिक गुणों का त्याग ही विनाश का कारण है। आप अपनी चिंता कीजिए शेर की नहीं। शेर को शेर ही रहने दीजिए।
(लेखक, स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।)